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अण्वप्युपाहृतं भक्तै: प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत् ।
भूर्यप्यभक्तोपहृतं न मे तोषाय कल्पते ।।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ।।
सुदामा लज्जित होते हैं कि श्रीपति को भला इन चावलों को क्या दूं ? परन्तु भगवान लज्जाशील सुदामा की कांख से पोटली निकाल चावल खाने लगते हैं। जीव भी बड़ा लज्जित होता है कि उस जगदीश के सामने अपने सुकर्मों को क्या दिखलाऊं, परन्तु भगवच्चरण में अर्पित थोड़ा भी कर्म बड़ा महत्व रखता है। भगवान उसके कियदंश से ही भक्तजन के मनोरथ परिपूर्ण करने में समर्थ हैं- सर्वस्व को स्वीकार कर समग्र त्रैलोक्य का आधिपत्य स्वीयपद भी देने के लिए तैयार हो जाते हैं, परन्तु श्री भगवान की ऐश्वर्य शक्ति – ऐसा करने नहीं देती। अस्तु, सुदामा को चाहिये क्या ? वह तो इतनी प्रसन्नता से कृतकृत्य हो गया और उसने भगवल्लोक को प्राप्त कर लिया। भक्त को भी चाहिये क्या ? भगवान की सन्निधि में आकर अपने संचित कर्मों को ‘पत्रं पुष्पम्’ को- उसे अर्पण कर दिया।
सुदामा की भाँति जीव कुछ देरतक संशय में रहता है कि अर्पित वस्तु का स्वीकार जगदीश ने किया या नहीं, परन्तु जब जीव अपनी कुटिया- भौतिक शरीर को देखता है, तब उसे सर्वत्र चमकती हुई पाता है, जन्म-जन्म की मलिनता धुल जाती है, वह पवित्र भवन बन जाता है, जिसमें वह अपनी सुबुद्धि के साथ निवास करता हुआ विषयों से विरक्त रह परम सौख्य का अनुभव करता है। भगवान की अनुकम्पा का फल देर से थोडे़ मिलता है। भक्तजन इसी शरीर में उसका साक्षात अनुभव करते हैं। प्रेमीजन ! हम सबको सुदामा बनना चाहिये हम अपने-अपने तण्डुल लेकर भगवान के सामने चलें, वह करुणवरुणालय उसे अवश्य स्वीकार करेंगे, हमारा दु:ख दूर कर देंगे, मायापाश से हमें अवश्य छुड़ा देंगे, परन्तु हम यदि सच्चे भाव से अपनी प्रत्येक इन्द्रिय को उसी की सेवा में लगा दें। भागवत के इन पद्यरत्नों को स्मरण कीजिये-
सा वाग् यया तस्य गुणान् गृणीते
करौ च तत्कर्मकरौ मनश्च ।
स्मरेद् वसन्तं स्थिरजड़मेषु
श्रृणोति तत्पुण्यकथा: स कर्ण: ।।
शिरस्तु तस्योभयलिंगमानमेत्
तदेव यत्पश्यति तद्धि चक्षु:
अंगानि विष्णोरथ तज्जनानां
पादोदकं यानि भजन्ति नित्यम् ।।
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