श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण और हिन्दू-धर्म
इसके विपरीत, आजकल के समय में यह प्रणाली चल पड़ी है कि ऐतिहासिक और विश्ले्षणात्मेक या व्यष्टयात्म दृष्टि को भी काम में लाना चाहिये। प्राचीन और विशेषकर अवतारी महापुरुषों के विषय में हमारे ग्रन्थों में यह उल्लेख स्पष्टतया बहुत कम मिलता है कि मौलिक, वास्तविक या सैद्धान्ति कर दृष्टि से उन-उन महापुरुषों ने संसार (या इस देश) का क्या-क्या उपकार किया। महापुरुषों के जीवन का एक दैवी या ईश्व रीय उद्देश्यह होता है और वे संसार का एक विशेष स्थायी उपकार करते हैं, जिसका महत्त्व उनके जीवन की भिन्न-भिन्न वैयक्तिक घटनाओं से कहीं अधिकतर होता है। उदाहरणार्थ, भगवान श्रीकृष्ण के जीवन की घटनाओं पर ही अभी तक साधारणतया हमारा ध्यान जाया करता है। जैसा कंस-वध, शिशुपाल-वध, या महाभारत-युद्ध में उनका सहायता करना, इनको ही हम प्रायः कृष्ण-चरित समझते हैं। ये घटनाएँ कितनी ही बड़ी क्यों न हो, इनका प्रभाव साक्षात रूप से केवल तत्कालीन ही था। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण का पूर्ण महत्त्व समझने के लिये हमें इन बातों को छोड़कर, उनके वास्तविक सर्वकालीन स्थायी उपकारों को ही देखना होगा। उन बातों का ही सरल दृष्टि से हम यहाँ विचार करना चाहते हैं।सबसे पहली बात जो इस सम्बन्ध में हमारे मन में आती है वह भक्तिवाद है। हमारे विचार में भक्तिवाद का वास्तविक प्रारम्भ भगवान श्रीकृष्ण से ही हुआ। इसको ठीक-ठीक समझने के लिये हमको प्राचीनतर वैदिक काल से भगवान के अम्तमय उपदेश श्रीमद्भागवत तक के धर्म-विषयक इतिहास पर दृष्टि डालनी होगी। वैदिक काल में कर्मकाण्ड ही धर्म का स्वरूप समझा जाता था। अग्नि, वायु आदि देवताओं को यज्ञादि के द्वारा प्रसन्न करके स्वाभीष्ट की सिद्धि करना ही उसका आदर्श था। निरूक्त आदि ग्रन्थों में पीछे से यह विचार किये गये कि ये देवता पुरुषविध हैं या अपुरुषविध। सिद्धान्त यही समझा जाता था कि आलंकारिक दृष्टि से पुरुषविध होते हुए भी वे वास्तव में अपुरुषविध हैं। इसी कर्मकाण्ड प्रधान धर्म का दूसरा नाम त्रयीधर्म है। धीरे-धीरे कोरे कर्मकाण्ड से मनुष्यों को उपरति होने लगी, श्री मद्भागवद्गीता के शब्दों में सोचा जाने लगा- एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना 9।21
ऐसे वायुमण्डल में उपनिषत्कालीन ज्ञानकाण्ड का उदय हुआ। परन्तु स्वभावतः कर्मशील मनुष्य का काम निरे ज्ञान से भी नहीं चलता, अतः उसे कुछ-न-कुछ कर्म तो करना ही पडे़गा। इसलिये उपनिषत्काल में ही भिन्न-भिन्न रूप में प्रतीकोपासना का प्रारम्भ हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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