श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण स्वयं भगवान थे
मद्भागवत के प्रथम स्कन्धोक्त ‘ इत्यादि श्लोक में किये गये ‘भगवान’ शब्द के प्रयोग के विषय में यह प्रथम कह दिया गया है कि उसमें ‘भगवान’ शब्द का प्रयोग श्रीआदिदेव नारायण के लिये किया गया है और उसी प्रसंग में आगे यह कहा गया है- एतन्नानावताराणां निधानं बीजमव्ययम् । अर्थात यही आदि नारायण प्रभु अनेक अवतारों के निधान (लय स्थान) और उद्गम स्थान हैं। केवल अवतारों के ही नहीं किन्तु प्राणिमात्र के। इन्हीं के अंश (ब्रह्म) के अंशों से (मरीच्यादि से) देव, तिर्यक और मनुष्यादि की सृष्टि होती है। श्रीधर स्वामीजीने इसकी व्याख्या में स्पष्ट कहा है- फिर आगे इसी प्रसंग में अन्य अवतारों का वर्णन किया गया है जिनमें पूर्वोक्त चतुःसन आदि 22 लीलावतारों का नामोल्लेख है। शेष में यह कहा गया है- 'एते चांशकला: पुंस: कृस्णस्तु भगवान्स्वयम् ।' श्रीमद्भा. 1।3।28
अर्थात पूर्वोक्त चतुःसन आदि लीलावतार परमेश्वकर के अंश और कला विभूतिरूप हैं और श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं। अतएव इस वर्णन द्वारा तो स्पष्ट अर्थ यही होता है कि जिस आदिनारायण के अन्य अवतार अंश-कला वर्णन किये गये हैं, श्रीकृष्ण् वहीं स्वयं श्रीनारायण ही प्रादुर्भूत हुए हैं। श्रीधर स्वामीजी ने यही स्पष्ट व्याख्या की है- 'कृष्णस्तु भगवांसाक्षान्नारायण एव।' अच्छा, अब श्रीकुष्णावतार विषयक उपक्रम का वर्णन देखिये, वहाँ स्पष्ट उल्लेख है कि दुष्ट राजाओं के अत्यन्त भार से आक्रान्त करती हुई ब्रह्माजी के समीप गयी तब ब्रह्माजी सब देवगण और उस गोरूपधारिणी पृथ्वी को साथ लेकर भगवान की पुरुषसूक्त से स्तुति की- ब्रह्मा तदुपधार्याथ सहदेवैस्तया सह । श्रीमद्भा. 10।1।11
तदन्तर ब्रह्माजी ने ध्यानावस्था क्षीरशायी भगवान की जो आकाशवाणी सुनी उसके विषय में देवगणों से कहा है कि भगवान ने हम लोगों की प्रार्थना के पूर्व ही पृथ्वी के सन्ताप को अवगत कर लिया है, और वसुदेवगृहे साक्षाद्भगवांपुरुष: पर: । श्रीमद्भा. 10।1।23
वे (भगवान) परमपुरुष वसुदेवजी के घर में प्रादुर्भूत होंगे और उनके प्रिय के अर्थ देवांगनाएं भी वहाँ जन्म धारण करें। अतएव इस वर्णन के द्वारा भी यही सिद्ध होता है कि क्षीरोदशायी भगवान श्रीनारायण ही श्रीकृष्णावतार में प्रादुर्भूत हुए हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |