श्रीकृष्णांक
पाण्डव बन्धु श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण ने अपने जीवन में मनुष्यों की-सी ही लीला की थी, इसलिये वे ईश्वर के अवतार हैं, इस बात को उनके जीवनकाल में बहुत कम लोग समझ सके थे। यह भी कहा जाता है कि उनके भक्तों ने सम्भवतः उनके कुटुम्बियों ने ही उन्हें ईश्वर के नाम से प्रसिद्ध कर दिया। श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में हम महाभारत के प्रारम्भिक पर्वों में जिनमें और पर्वों की अपेक्षा अधिक प्राचीन आख्यान हैं- श्रीकृष्ण को केवल महापुरुष ही माना गया है, ईश्वर नहीं; परन्तु उसकी यह उक्ति बहुत ही अनुचित है और उसने यह बात अच्छी तरह से सोच-समझकर कही हो ऐसा नहीं माना जा सकता। आदि पर्व के तिरसठवें अध्याय में ही स्पष्ट से श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार कहा गया है- अनादिनिधनो देव: स कर्त्ता जगत: प्रभु: । अनादि, अनन्त जगतकर्ता प्रभु, अव्यक्त, अक्षर, ब्रह्म, प्रकृति, त्रिगुणात्मक, आत्मा, अव्यय, प्रधान, जगत के कारण, स्वामी, पुरुष, विश्व कर्मा, सत्त्व रूप, ध्रुव अक्षर, अनन्त, अचल, देव, हंस, प्रभु नारायण, धाता, अजन्मा, अनिर्देश्य, परम अविनाशी, केवल, निर्गुण, अनादि विभु, ऐसे उन सर्व प्राणियों के पितामह परमात्मा ने धर्म संस्थापन के लिये लोगों पर दया करके वसुदेव-देवकी के यहाँ जन्म लिया। इससे उनका भगवान होना स्पष्ट है। दूसरे अवतारों की तरह श्रीकृष्ण-अवतार का भी प्रधान उद्देश्य, धर्म का उपदेश, उपदेश, साधुओं की रक्षा और दुष्टों दमन ही था। यस्तु नारायणो नाम देवदेव: सनातन: । (महा. आदि. 68)
महाभारत के अनेक श्लोकों में उनका केशव गोविन्द पुण्डरी काक्ष आदि नामों से निर्देश किया गया है। इससे महाभारत के अनुसार ही उन्हें ईश्वर मानने में कोई सन्देह नहीं रहा जाता। हाँ यह अवश्य विचारणीय है कि महाभारत कौन-सा अंश प्राचीन माना जाय और कौन-सा प्रक्षिप्त। इसका निर्णय करना बहुत ही कठिन है। विद्वान लोग इसका पता लगाने की चेष्टा कर रहे हैं। श्रीमद्भगवतगीता में ऐसे अनेक वाक्य है जिनमें यह अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में बतलाया गया है कि भगवान नाराययण ने ही धर्म कि स्थापना के उद्देश्य से पृथ्वी पर अवतार लिया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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