श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण तत्त्व
ये समस्त जीवात्मा नित्य और सनातन हैं। इन सब जीवात्माओं के जो पृथक-पृथक मन हैं, वह भी नित्य हैं। एक-एक मन के साथ एक-एक जीवात्मा का एक असाधारण सम्बन्ध अनादिकाल से चला आता हैं इसी सम्बन्ध के कारण जीवात्मा में ज्ञान, इच्छा, प्रयत्न, द्वेष सुख, दुःख संस्कार और धर्माधर्म होते हैं।
ईश्वर अभ्रान्त हैं ईश्वर का ज्ञान भ्रमरूप नहीं हैं, परन्तु जीवात्मा अभ्रान्त नहीं हैं। जीवात्मा को भ्रम-ज्ञान से ही होती हैं। स्वर्गसुख से लेकर जितने भी विषयजन्य सुख है सभी हैं सभी एक प्रकार से दुःख मिश्रित हैं-एक-एक सुख की प्राप्ति के लिये कितने दुःख सहने पड़ते हैं। फिर यह सभी सुख विनाशी हैं और इसलिये उनके नाश की आशंका से दुःख बना रहता है और नाश होने पर तो दुःख होता ही हैं, अतएव इन सभी सुखों के साथ मिले हुए दुःख को न समझकर इतना केवल सुखरूप से ग्रहण करना- यह भ्रम हैं, यह आत्मत्व बुद्धि भी भ्रम हैं। इसी भ्रम से इच्छा और द्वेष उत्पन्न होते हैं। जिस साधन के द्वारा ये कल्पित सुख होते हैं, उसे प्राप्त करने की इच्छा होती है और उसके प्रतिकूल विषय से द्वेष होता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नयायदर्शन 1।1।2 एवं भाष्यादि, एवं 1।1।22
- ↑ न्यायदर्शन 4।1।21 अद्योतकर वार्तिक
- ↑ अनुमानदीधिति (गादाधरी)
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