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श्रीकृष्णांक
प्रेम और सेवा के अवतार श्रीकृष्ण
सखियाँ भगवान को श्री राधाजी के दर्शन के लिये वृक्षों के कोटरों में छिपकर प्रतीक्षा करवाया करती थी[1]। व्रज मे समस्त कार्यों का छिपा हुआ उद्देश्य तथा प्रयोजन सर्वथा स्वतन्त्र, समान और पारस्परिक प्रेम एवं सेवा का एक महान समन्वय था। समस्त संसार में लोग स्वतन्त्रता, भाईचारे तथा समानता की चर्चा करते है, किन्तु बल प्रयोग, युद्ध, जबरदस्ती अथवा अधिकार की माँग के द्वारा इन भावों की स्थापना करने की चेष्टा का परिणाम अशान्ति और परस्पर की लूटखसोट ही होती है। वे लोग इस बात को जानते कि समानता एवं एकता की कुंजी प्रत्येक मनुष्य का स्वार्थ त्यागपूर्वक व्रजवासियों जैसे प्रेम के साथ दूसरों की भलाई के लिये चेष्टा करना ही है। यही यज्ञ का मार्ग है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण के इस महान आदर्श का अनुसरण करने लगें। शैशवकाल से ही भगवान ने अपने प्रेम के प्रभाव से सारे व्रज को एकता के साँचे मे ढाल दिया था। पहले तो जैसा हम ऊपर कह आये हैं, उन्होंने सब लोगों के हित की दृष्टि से सारे व्रज की सम्पति को बराबर बाँट दिया और मनुष्यों, पशुओं तथा प्रकृति को एकता के सुत्र में बाँध दिया। साथ ही सेवा, खेल और संग से उन्होंने समस्त प्राणियों के हृदय पर अधिकार कर लिया। निःस्वार्थ एवं अहंताशून्यद प्रेम के मार्ग में देहाभिमान बड़ा बाधक होता है। चीरहरण की लीला में जैसा कि पूर्व में बतलाया जा चुका है, भगवान अपनी प्रेमिकाओं का यह अभिमान दूर कर दिया। उन्हें प्रेम के आवेश में सब कुछ भूला दिया। मै सदा अपने प्रेमास्पद की सेवा करूँगा, किन्तु उससे सेवा नहीं चाहूंगा यह भावगर्वपूर्ण अहंकार का द्योतक है। इसीलिये भगवान बहुथा उन्हें कठिन परिस्थिति में डालकर उन्हें इस अहंकार से मुक्त किया करते थे। वैयक्तिक मोक्ष की कामना सच्चे प्रेम में बड़ी बाधक है। इसलिये जब भगवान की प्रेमिका यज्ञ-पत्नियों ने उसकी इच्छा की तब भगवान ने उनके भ्रमपूर्ण संस्कारों को शुद्ध करके उन्हे वापस अपने पतियों के पास लौटा दिया और कहा कि जिन्हें तुम छोड़ आयी हो, उन्हीं को ज्ञान और प्रेम का पाठ पढाओं। भगवान ने यह भी कहा कि मेरे समीप रहने से नहीं, अपितु दूर रहकर मेरा चिन्तन तथा दीनों की सेवा करने से तुम्हारे प्रेम की वृद्धि होगी। यज्ञादि कर्मों के तात्पर्य और महत्त्व को बिना समझे ही उनमें अन्धविश्वास पूर्वक चिपट जाना सच्चे प्रेम का एक दुसरा शत्रु हैं। गोवर्धन यज्ञ के अवसर पर भगवान ने इसके विरुद्ध आन्दोलन खड़ा किया ओर इस सिद्धान्त को स्थापित किया कि अन्धविश्वास और ऊँच-नीच के भेद को प्रधानता देनी चाहिये [2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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संकेतीकृतकोकिलादिनिनन्द कंसद्विष: कुर्वतो द्वारोन्मोचनलोलशंखवलयक्वाणं मुहु: श्रृण्वत:।
केयं केयमितिप्रगल्भजरती वाक्येन दूनात्मनो राधाप्रांगणकोणकेलिविटपक्रोडे गता शर्वरी॥(उज्ज्वलनीलमणि) - ↑
ज्ञात्वाअज्ञात्वा च कर्माणि जनोअयमनुतिष्ठति। विदुष: कर्मसिद्धि: स्यात्तथा नाविदुषो भवेत्॥
अन्येभ्यश्च श्वचाण्डालपतितेभ्यो यथार्हत:। यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलि:॥(श्रीमद्भा.10।24।6,28)सब लोग ज्ञात और अज्ञात, दो प्रकार के कर्म करते हैं, जिनका फल और तत्त्व पहले जान लिया गया वे ज्ञात और जो बिना विचारे किये जायँ वे अज्ञात है। ज्ञात कर्म सिद्ध होते हैं और अज्ञात वैसे सिद्ध नहीं होते। (अतएव इन्द्र का यज्ञ न करके गोवर्धन का यज्ञ करो।) श्रान, चाण्डाल और पतितों को यथायोग्य अन्न देकर सन्तुष्ट करो, गौओं को हरी घास खिलाओ और गिरिराज के भोग लगाओं!