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पाप-पुण्य दोनों नष्ट हो गये, फिर देह कैसे रह सकता है ? यदि साक्षात श्री परमात्मा में उपपति का ज्ञान प्रयुक्त हो जाय तो जान में हो या अजान में, परम पति की प्राप्ति से यह स्थूल देह विलग कैसे रह सकता है ? वे गोपियाँ मुक्त हो गयीं। अच्छा, गोपियों ने श्री कृष्ण को अपना परम कान्त ही समझा था, अद्वैत का ज्ञान तो उनमें न था, फिर उनकी संसार से मुक्ति क्यों कर हुई ? क्यों नहीं होगी ? उसी अद्वय ज्ञान स्वरूप परम देवता को शिशुपाल, रावण और हिरण्यकशिपु ने शत्रु-भाव से जाना था, परन्तु जब वे भी संसार से छूट गये, तब जो उन में परम प्रेम करती थीं, उनके लिये क्या कहना है ? जो एक समकाल में निर्गुण, सगुण, आत्मा और अवतार हैं, उनके किसी भी रूप का प्रकाश हो, वह भक्तों के कल्याण के लिये ही है। काम से हो, क्रोध से हो, भय से हो, स्नेह से हो, भक्ति से हो या जिस किसी सम्बन्ध से हो, चित्त जब अच्युत के चिन्तन में निमग्न हो जाता है, नमक की पुतली जब समुद्र का थाह लाने जाती है, चित्त जब उत्पत्ति-स्थान में पहुँचता है तब वह वहाँ तन्मयता प्राप्त कर सहज ही तदू्रप हो जाता है।
उसकी कृपा से जब स्थावरादि भी मुक्त होते हैं तब व्रजागंनाओं की जो बात ही क्या है ? व्रज गोपिकाएँ श्री कृष्ण के समीप आयीं, तब श्री कृष्ण उन्हें वाक्चातुरी से वैध-धर्म का उपदेश करने लगे। जिन भगवान में सारे धर्म-कर्मों का पर्यवसान हो जाता है उनको प्रत्यक्ष प्राप्त करने पर भी यदि किसी को विधि निषेध का संस्कार रह जाय तो उनकी प्राप्ति ही कहाँ हुई। श्री भगवान ने इसी संस्कार के क्षय करने के लिये वाक्वातुरी आरम्भ की; आप कहने लगे- ‘हे महाभागाओ ! तुम सुख से तो हो ? मैं तुम लोगों का क्या इष्ट साधन कर सकता हूँ ? व्रज तो कुशल से है ? इस भयंकर रात्रि में और इस वन भूमि में, जहाँ अगणित भयंकर प्राणी विचरण करते रहते हैं, तुम क्यों आयीं ? जाओ, व्रज को लौट जाओ। हे सुमध्य माओ ! अबलाओं का इस प्रकार के स्थान में रहना उचित नहीं।
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