श्रीकृष्णांक
योगेश्वर श्रीकृष्ण
क्योंकि जब चित्त शरीर और इन्द्रियों से पृथक होकर श्रीभगवान मे लय हो जाय तो स्थूाल-शरीर के भोग का ध्यान नहीं रह सकता। पर इस प्रकार से विषय भाव छूटकर विषयों से अतीत तन्मयता का आना और चरमोन्नित लाभ होना सामान्य पुरुष के साथ प्रेम करने से कदापि सम्भव नहीं हो सकता। क्योंकि सामान्य पुरुष प्रकृति के अधीन होने के कारण, प्रकृति को अपने में लय करने की शक्ति उसमें नहीं होती। यह शक्ति तो समस्त संसार को अपनी ओर आकृष्ट करने वाले श्रीभगवान में ही हो सकती है। भगवान श्रीकृष्ण चन्द्र पूर्णावतार होने के कारण ऐसे ही सर्व शक्तिमान थे, इसलिये गोपियाँ उनके चरण-कमल का आश्रय करके संसार-समुद्र से पार हो गयी थी। गोपियों कि भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में तन्मयता के विषय में श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि- तानाअविदन्मय्यनुषंगबद्ध- जिस प्रकार मुनिगणों का समाधि-दशा में या नदी का समुद्र में लय होने से नाम रूपमय द्वेतभाव नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार गोपियाँ मुझ में चित्त को प्रेम के साथ ऐसा लय कर देती थीं कि उसमें द्वैत-भाव नहीं रहता था। वे अपने को पूर्णरूप से भूल जाती थीं। इस प्रकार की दशा में स्थूल-शरीर का भान नहीं रहता, इसलिये काम-भाव भी पूर्णरूप से नष्ट हो जाता है। इस प्रकार से गोपियाँ शरीर, मन, और प्राण से श्री भगवान में प्रीती करके मुक्त हो गयी थीं। इसको एक दृष्टान्त से समझा जा सकता है। यदि तख्ते और लोहे की कीलों से बनी हुई किसी नाव को ऐसे एक समुद्र में बहा दिया जाय कि जिसके एक तट पर एक बड़ा भारी चुम्बक का पहाड़, तो वह नाव समुद्र में बहती हुई जब चुम्बक के पहाड़ के पास पहुँचेगी, तब चुम्बक की आर्कषण-शक्ति से समस्त कीलें नाव से खुल कर पहाड़ में जाकर लग जायँगी और वह नाव खण्ड-खण्ड होकर समुद्र में डुब जायेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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