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तब शुकदेवजी ने परीक्षित को श्रीकृष्णचन्द्र जी का यथार्थ रूप समझाकर उनकी समस्त शंकाओं का समाधान कर दिया और मन्दमति कलियुग के जीवों के लिये भी अपूर्व धर्म का उपदेश किया। यथा-
धर्मव्यक्तिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् ।
तेजीयसां न दिषाय वह्ने : सर्वभुजो यथा ।।
नैतत्समाचरे ज्जातु मनसाअपि ह्यनीश्वर ।
विनश्यत्याअअचरन्मौढ्याद्यथा रुद्रोअब्धिजं विषम् ।।
कुशलाचरितेनैषामिह स्वार्थो न विद्यते ।
विपर्ययेण वाअनर्थो निरहंकारिणां प्रभो !
किमुताअखिलसत्त्वानां तिर्यड़्मर्त्यदिवौकसाम् ।
ईशितुश्चेशितव्यानां कुशलाअकुशलांवय: ।।
यत्पादपंकजपरागनिषेवतृप्ता
योगप्रभावविधुताअखिलकर्मबन्धा: ।
स्वैरंचरंति मुनयोअपि न नह्यमाना-
स्तस्येच्छयात्तवपुष: कुत एव बन्ध: ।।
गोपीनां तत्पतीनांच सर्वेषामेव देहिनाम् ।
योअंतश्चरति सोअध्यक्ष: क्रीडनेनेह देहभाक् ।।
अनुग्रहाय भाक्तानां मानुषं देहमास्थित: ।
भजते तादृशी: क्रीडा या: श्रुत्वा तत्परो भवेत् ।।
लौकिक जगत के लिये जो धर्म है, ईश्वर में उस धर्म का व्यतिक्रम देखने में आता है, क्योंकि ईश्वर में शक्ति अधिक होने से साहस भी अधिक हैं। जिस प्रकार अग्नि समस्त वस्तुओं को दग्ध कर सकती है, उसी प्रकार तेजस्वी पुरुष लोक धर्म विरुद्ध आचरण के धक्के को भी सहन कर सकते है और इस विरुद्धाचरण का दोष उनको नहीं लग सकता। पर जो ईश्वर नहीं है, उसे इस प्रकार का आचार मन से भी नहीं करना चाहिये, अन्यथा उसका नाश हो जाता है। जैसे कि श्रीशिवजी विषपान करने पर भी नीलकण्ठ बने हुए है, पर साधारण जीव इससे मर जाते है।
प्रत्येक धर्म या अधर्म तभी तक जीव को स्पर्श कर सकता है, जब तक जीव का जीवत्व रहे अर्थात अन्तःकरण, इन्द्रियों और स्थूतल शरीर के साथ जीव का अहंभाव या ममता रहे। परन्तु जिस समय ममता के नष्ट होने से आत्मा शरीर और मन से पृथक हो जाता है, उस समय शुभ या अशुभ कोई भी कर्म जीव को स्पर्श नहीं कर सकता। इसीलिये श्रीकृष्णचन्द्र जब साक्षात नित्य मुक्त परमात्मा थे, स्थूील सुक्ष्म और कारण-शरीर के साथ उनका कोई ममत्व-सम्बन्ध नहीं था, इससे कुशल या अकुशल कोई भी कार्य उनको स्पर्श नहीं कर सकता था। जो परमात्मा मनुष्य, जन्तु, देवता और समस्त प्राणियों मे व्यापक, सबके प्रभु और प्रार्थनीय है, उनको कुशलाकुशल कैसे स्पर्श कर सकते है ? जिनके चरण-कमल के प्रभाव से योगीगण कर्म बन्धन से मुक्त होकर संसार को पवित्र करते हुए विचरण करते है, केवल माया से शरीर धारण करने वाले उन निराकार परमात्मा को बन्धन कैसे लग सकता है ? जो स्वयं बुद्ध है, वह दूसरे को मुक्त नहीं कर सकता। शास्त्रों में कहा है- ‘स्वयंसिद्ध: कथं परांसाधयति’ स्वयं असिद्ध दूसरों को सिद्ध नहीं बना सकता।
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