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श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चैतन्य महाप्रभु और श्रीकृष्ण भक्ति
स्वयं निरभिमान या मान-वासना से सर्वथा रहित हो, अन्य लोगों का यथायोग्य सम्मान करते रहना चाहिये अर्थात देहात्म बुद्धि के कारण जो कुलाभिमान, पदाभिमान, धनाभिमान, बलाभिमान, रूपाभिमान, वर्णाभिमान, आश्रमभिमान आदि विपरितभिमान है, उनको या इनके द्वारा मान प्राप्त करने की जो वासना है, उसको पूर्णरूप से परित्याग कर अन्यत्र सम्मान बुद्धि से यह अभिप्राय है कि सर्वत्र श्रीकृष्णाधिष्ठान मानकर सम्मान करने से स्वधर्म की स्फूर्ति होगी, स्वरूपगत स्वस्थता प्राप्त होगी एवं श्रीकृष्ण-कीर्तन में अभिरुचि होगी। श्री मन्महाप्रभु अब उक्त प्रकार से श्रीकृष्ण नाम कीर्तनकारी भक्त की वाच्छका निदर्शन कराते हैं- न धनं न जनं न सुन्दरीं कविता वा जगदीशकामये । हे जगदीश ! न मैं धन चाहता हुँ न मैं जन चाहता हुँ, न मैं सुन्दरी कविता चाहता हुँ- चाहता हुँ केवल प्राणेश्वर आपके चरणों में मेरी जन्म-जन्म मे अहैतु की भक्ति हो। तात्पर्य यह कि जीव जब कृष्णदायस्वमरूप स्वधर्म ज्ञानपूर्वक अपने को भोग्य वस्तु मानता है, तब एकमात्र श्रीकृष्ण को ही समस्त चराचर जगत का भोक्ता जानता है। इसी से यहाँ श्रीकृष्ण को जगदीश शब्द से सम्बोधित किया है। इस अवस्था में जीव की समस्त निज भोग-वासना तिरोहित हो जाती है इस समय न तो यह पारलौकिक सुख के साधन धर्मरूप धन की इच्छा करता है, न सांसरिक सुख के साधन अर्थ रूप धन की स्पृहा रखता है और न पुत्र कलत्रादि आत्मीयजनों की ही कामना करता है। अयि नन्दतनूज! किंकरं हे नन्दतनुज ! विषय संसार समुद्र में पड़े हुए मुझ किंकर को कृपा कर अपने पादपंकज की धूलि के सदृश जानिये। तात्पर्य यह कि जीव जब तक देहात्म बुद्धि के कारण अपने को भोक्ता मानता है तब तक संसार को अपना भोग्य समझता है ओर जब हरि गुरु कृपा से भक्ति साधन करते-करते उसके देहात्म बुद्धि रूप विवर्त का विनाश हो जाता है, तब उसे श्रीकृष्ण किंकर रूप स्वस्वरूप का ज्ञान हो जाता है। उस समय उसे संसार एक विषय समुद्र के समान प्रतीत होने लगता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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