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द्वितीय भूमिका है- भवरूप महादावा ग्रिका शमन होना। वन में वृक्षों के परस्पर के संघर्ष से जो अग्नि प्रज्वलित हो जाता है, उसका नाम दावाग्नि है। इस संसार में जीवों को विषय-वासनाओं के पारस्परिक संघर्ष से जो आध्याम्तिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप उत्पन्न होता है, उसकी दावाग्रि से तुलना की गयी है जिस प्रकार वन में चारों ओर से दावाग्रि के प्रज्वलित होने पर, वन के मृगादि पशु उसके ताप से शान्ति पाने के लिये चारों और दौड़ते हैं, परन्तु उन्हें शान्ति कहीं भी प्राप्त नहीं होती; शान्ति तभी होती है, जब वृष्टि से अग्नि बृझता है। उसी प्रकार संसार में तापत्रय से तापित जीव सुख-शान्ति के विविध विषयों की ओर अग्रसर होता है, किन्तु जिधर जाता है उधर दुःख-ही-दुःख दिखायी देता है। इसे शान्ति तभी मिलती है जब तापत्रय रूप संसार की महादावाग्नि का निर्वाण हो। वह संकीर्तन से होता है।तृतीय भूमिका है- जीव के श्रेयरूप कुमुद को विकसित करने वाली चन्द्रिका का प्रकाश होना। जीव सुख स्वरूप होने के कारण सर्वदा सुख की इच्छा करता है। जीव के सांसारिक अर्थात इन्द्रियजन्य सुखका नाम है ‘प्रेम’। और पारमार्थिक अर्थात आत्मासुख का नाम है ‘श्रेय’। इस श्रेय को कुमुद पुष्प से उपमा दी गयी है। कुमुद पुष्प दिन में सूर्य के ताप से मुकुलित (बन्द) रहता है और रात में चन्द्रमा की शीतल चाँदनी पाकर खिल जाता हैं।
जड़बद्ध जीव का आत्म सुख रूप श्रेय कुमुद भी तापत्रय के सन्ताप से मुकुलायमान रहता है, श्रीकृष्णनाम चन्द्रमा का संकीर्तन रूप से उदय होने पर, जब भाव-चन्द्रिका का प्रकाश होता है, तब इसका विकास होता है। चतुर्थ भूमिका है- विद्यावधू के जीवन का सणचार ज्ञान स्वरूप जीव की विद्या ही परम परिचारिका हैं। इसी से इसे वधू शब्द से संकेत किया गया हैं। विद्या दो प्रकार की है- एक अपरा, दूसरी परा। अपरा के द्वारा क्षर-वस्तुओं का ज्ञान होता है। परा के द्वारा अक्षर तत्त्व का ज्ञान होता है। ‘अक्षरं ब्रहा परमम्’ इस भगवत वाक्य के अनुसार परम ब्रह्म का नाम अक्ष है। ब्रह्मा के आधार स्वरूप श्रीकृष्ण ही परम ब्रह्म हैं। श्रीकृष्ण कितने और क्या वस्तु हैं, यह ज्ञान तत्त्वतः (पूर्णरूप से) बिना भक्ति के नहीं होता। भक्ति ही विद्या का जीवन हैं, जो कि नाम संकीर्तन द्वारा सन्चारित होता है। पंचम भूमिका है- आनन्दसिन्धु का उमगना। जीव आनन्द सिन्धु श्रीकृष्ण का एक क्षुद्रातिक्षुद्र कण है। क्षुद्रता के कारण इसमें आनन्द की मात्रा अति अल्प हैं, इसी से यह वृद्धावस्था में अपने से भिन्न वस्तुओं में आनन्द का अनुसन्धान करता है किन्तु निरानन्द वस्तुओं में आनंद कहाँ ? आनन्द तो अपने आत्मा में है।
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