श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण जी की आठपटरानियाँ
सत्यभामा सत्राजित् यादव की कन्या थीं, इनका रूप और गुण विख्यात था। इनका विवाह पहले शतधन्वा यादव से होना निश्चित हुआ था, परन्तु जब श्रीकृष्ण जी ने स्यमन्तक-मणि जाम्बवान् के यहाँ से लाकर सत्राजित् को दी, तब वह इस बात पर बड़ा ही लज्जित हो गया कि मैंने वसुदेवनन्दन को झुठा कलंक लगाया। अतएव उसने विनय के साथ अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह श्यामसुन्दर से कर के वही स्यमन्तक-मणि दहेज में भगवान का देकर कलंक से छूटना चाहा। भगवान ने सत्यभामा को तो स्वीकार किया, परन्तु स्यमन्तक-मणि वापस लौटा दी। एक बार श्री कृष्ण जी हस्तिनापुर से अर्जुन को साथ लेकर घुमने गये। यमुना-किनारे जाकर पानी पिया और फिर एक वृक्ष के नीचे लेट गये। अर्जुन सोकर उठे तो टहलते-टहलते यमुना-किनारे कुछ दूर निकल गये। वहाँ उन्होंने देखा कि यमुना के अन्दर एक स्वर्णमय रत्नजटित भवन बना है और उसमें एक महासुन्दरी बैठी हुई तप कर रही है। अर्जुन ने उसके पास जाकर पुछा-‘तू कौन हो और यहाँ किस कारण तप कर रही हो?’ उसने कहा-मैं सूर्यदेव की पुत्री कालिन्दी हूँ, मेरी इच्छा है कि भगवान श्री कृष्णचन्द्र आन्नदकन्द मेरे पति हों। मेरे पिता ने यह सूर्यमहल बनवा दिया है, मैं यहाँ बैठी अपने स्वामी का ध्यान कर रही हूँ।कभी तो वे दीनदयालु मुझ पर अनुग्रह करेंगे ही। ‘अर्जुन ने हँसते हुए आकर मुरली-मनोहर से सारे समाचार सुना दिया। श्यामसुन्दर ने वहा जाकर कालिन्दी को दशर्न दिया। कालिन्दी ने परम प्रेम पूर्वक भगवान का पूजन कर प्रार्थना की-‘महाराज! मैं आपकी दासी होना चाहती हूँ,’ परन्तु कन्या को स्वंय पति निर्णय न कर पिता-माता के द्वारा ही करवाना चाहिये, यही सनातन-मर्यादा है। अतएव आप मेरे पिता से मिल लिजिये। यह सुन कर भगवान श्री कृष्णजी ने जाकर सूर्य भगवान से कहा कि ‘आप अपनी कन्या हमें दीजिये’ सूर्य देवता तो यह चाहते ही थे, अतएव उसी क्षण वहाँ आकर उन्होंने अपनी कन्या कालिन्दी को श्री कृष्ण जी के प्रति समर्पण कर दिया। श्यामसुन्दर कालिन्दी सहित अर्जुन के साथ हस्तिनापुर लौट आये। कुछ दिन वहाँ रह कर पश्चात् द्वारका पधारे और वहाँ विधिवत् कालिन्दी के साथ विवाह कर लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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