श्रीकृष्णांक
आदर्श पुरुष श्रीकृष्ण
महाभारत पढ़ने से अवगत होता है कि यद्यपि श्री कृष्ण पाण्डवों के पक्षपाती थे, क्योंकि न्याय और धर्म पाण्डवों के पक्ष में थे, तथापि वे यह नहीं चाहते थे कि कौरवों को हानि पहुँचे। अतएव उन्होंने भरसक दोनों पक्षों में मेल-मिलाप कराने और महाभारत का युद्ध न कराने का पूर्ण प्रयत्न किया था। यह बात उनकी उन बातों से स्पस्ट विदित होती है जो उन्होंने विदुर से कही थी। जब विदुर ने श्री कृष्ण से कहा-‘तुम्हारा यहाँ (हस्निापुर में) आना उचित नहीं हुआ, क्योंकि दुर्यांेधन किसी प्रकार भी न मानेगा और जब वह मानेगा ही नहीं तब सन्धि क्यों कर होगी?’ तब श्री कृष्ण जी ने कहा था- यदि दुर्योधन मेरी हितभरी बातें सुनकर भी मुझ पर सन्देह करे तो मेरा क्या बन-बिगाड़ सकता है? प्रत्युत मुझे तो इस बात से बड़ा सन्तोष है कि मैं उसे समझाकर अपने कर्तव्य के बोझ से हल्का हो गया। भाई-बन्दों के आपस के झगड़ों में जो सत्परामर्श नहीं देता, वह ’अपना कहलाने योग्य नहीं हैं।’ श्रीकृष्ण जी ने इस कथन का प्रथम वाक्य ऐसा महत्त्वपूर्ण है कि आधुनिक युरोप के प्रत्येक राज्यधिष्ठाता को चाहिये कि वह इन वचनों को स्वर्णाक्षरों में लिखवा अपने भवन में ऐसे स्थान पर रखें , जहाँ उनकी दृष्टि सदैव उस पर पड़ती रहे। अस्तु! श्री कृष्ण जी ने उक्त वाक्य विदुर जी के सामने केवल ऊपरी मनही से नहीं कहा था; किन्तु अगले दिन उन्होंने कौरवों की सभा में जो बातें कही थीं, उनसे भी यह बात स्पस्ट समर्थित हो जाती है। श्री कृष्ण जी ने कहा- हे धृतराष्ट्र! यदि कौरव जीतें और पाण्डव मारे जायँ या पाण्डव जीतें और कौरव मारे जायँ तो आपके माथे पर दोनों ही तरह कलंक का टीका लगेगा। सब जानते हैं कि पाण्डव जब बालक थे तभी उनके पिता स्वर्ग वासी हुए। आप ही ने उनको पाल-पोसकर बड़ा किया है। जिनको आपने पाल-पोसकर बड़ा किया है, उनकी रक्षा करना क्या आपका कर्तव्य नहीं है? सत्य के पाष में बँधें हुए पाण्डवों ने तेरह वर्ष वन मे रह कर बिताये और आपके सामने उन लोगों ने जो प्रतिज्ञा की थी, वह पूरी की। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |