श्रीकृष्णांक
गीता के उपदेष्टा श्रीकृष्ण
परमात्मा श्रीकृष्ण के ऐतिहासिक जीवन-चरित्र का सूक्ष्म दूष्टि से विश्लेषण करने पर पता लगेगा कि उनका कोई भी काम उनके अपने लिये नहीं था, उनका प्रत्येक कार्य साधु जीवात्मा के अभय, सत्त्वशुद्धि आदि दैवी-सम्पत्ति में स्थित होने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिये ही था। उन्होंने बाल्यकाल में अपने संसर्ग में आने वाले सारे गोप-गोपियों को अपनी लौकिक तथा अलौकिक प्रेमलीला में सराबोर कर दिव्य प्रेम का आस्वादन कराया था , साथ ही दुष्टों की दुष्टता तथा अहंकारियों के अहंकार का नाश कर उनका उद्धार किया था। युवावस्था में भगवान्न देव ,ब्राह्मण, माता, पिता, स्त्री, मित्र, भक्त और अपने सर्ग-सम्बन्धियों के साथ, भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर आदर्श बर्ताव करके जनता के लिये ऐसे अवसरों पर व्यवहार करने का आदर्श सुन्दर राजमार्ग बना दिया और इसी प्रकार जीवन के पिछले समय में आपने राजनीति तथा व्यवहार में आने वाले धर्म –संकटों से विवेक के द्वारा कैसे उनसे सुरक्षित रूप से बचा जा सकता है, इसका उत्तम मार्ग बतलाया। इतना ही नहीं, बल्कि ब्रह्म, माया, ईश्वर तथा जीव के स्वरूपों को समझाकर, उनके बिखरे हुए अंगों को मानो जोड़कर, सबको एकाकार कर तत्त्वज्ञान की विभिन्न विचारधाराओं का समन्वय कर उसका सुन्दर गान अपनी गीता में जगत को सुनाया और सरलता के साथ भलीभाँति यह सिद्ध करके दिखला दिया कि व्यवहार, नीति, धर्म और तत्त्वज्ञान एक-दूसरे से भिन्न और विरोधी नहीं है, अपितु एक –दूसरे के पोषक हैं। श्रीभगवान के जीवन तथा उपदेशोंका अभ्यास करने वाले पुरुषों को विदित होगा कि यद्यपि इन सब व्यवहारों तथा उपदेशों में परमात्मा श्रीकृष्ण एक व्यक्ति के रूप में ही लीला करते है तथापि उनमें व्यक्तिगत स्वार्थ रत्तीभर भी नहीं है। वे सर्वथा केवल-असंग हैं। विभिन्न देशों की संस्कृति-भेदक कारण उनकी भावना और तदनुसार उनके ध्येय होते है, इससे उनकी भाषाओं में विभिन्न भावनाएँ मूर्तिमान होती हैं। इसी कारण जिन लोगों की बुद्धि का विकास दूसरों की भाषा द्वारा हुआ है, उन हिन्दुओं को तथा कितने ही विदेशियों को श्रीकृष्ण के जीवन का कुछ भाग क्लिष्ट प्रतीत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |