श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान स्वयम
एक बार जहाँ उनके दर्शन हुए; बस, फिर उनके ईश्वर होने में कोई सन्देह नहीं रह जायगा। उनसे ऊँची वस्तु संसार में कोई नहीं है, यही उन सब लोगों का अनुभव है, जिन्होंने उनके दर्शन किये हैं। पुराणों तथा इतिहासों में जिन लोगों की कथाएँ आती हैं, उनमें तथा अर्वाचीन काल के लोगों में भी, जिन्होंने एक बार भी उनका दर्शन कर लिया, किसी अन्य वस्तु की कामना रहती ही नहीं। जिन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कर लिया, उनके लिये पृथ्वीं के ऐश्वर्यं, स्वर्ग के उपभोग, अद्वैतवासियों का अति प्रशंसित मोक्ष और सांख्यवादियों की कैवल्य मुक्ति आदि किसी में भी राग नहीं रह जाता। वे तो किसी-न-किसी रूप में भक्त प्रहलाद् की इस प्रार्थना की ही प्रतिध्वनि करते हैं-
’हे भगवान ! चाहे मैं हजारों योनियों में जन्म लूँ किन्तु प्रार्थना यही हैं कि किसी भी योनि में आपकी दृढ़ भक्ति न छूटे।’ कतिपय नवीन वेदान्तियों की भाँति इस भुलावे में नहीं पड़ना चाहिये कि श्रीकृष्ण-प्राप्ति की अपेक्षा कैवल्य मुक्ति ऊँची हैं एवं वह और भी आगे चलकर मिलती हैं। वस्तुतः यह बात नहीं हैं। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान स्वयं कहते हैं कि जो लोग उन्हें अक्षर, अनिर्देश्य एवं अव्यक्त रूप से भजते हैं अथवा जो उनकी आराधना श्रीकृष्ण के रूप में करते हैं, उन दोनों को एक ही लक्ष्य की प्राप्ति होती हैं। लेकिन वहाँ उनके कहने के ढ़ंग पर तो ज़रा ध्यान दीजिये। वह यह नही कहतें जैसा कि कुछ मायावादी उनके मुँह से कहलाना चाहते हैं कि, जो मेरी (श्रीकृष्ण की) उपासना करता हैं वह भी अन्त में इस मार्गं से होकर निर्गुण ब्रह्म को ही प्राप्त होता है। उनका कहना यह हैं कि जो लोग निर्गुण और निराकार ब्रह्म की उपासना करते हैं, वे भी अन्त में मुझकों (श्रीकृष्ण को) ही प्राप्त करते हैं; ’ते प्राप्रुवन्ति मामेव।’ उनके चरणाम्बुजों का ध्यान और सेवा केवल सुगम ही नहीं, अपितु वह ’आत्मानात्मविवेक, कामनाओं के दमन, जगत के मिथ्यात्व की छानबीन इत्यादि की अपेक्षा, जिनका मायावादियों के ग्रंथों में विस्तार से वर्णन हैं, परे की बात हैं; फिर प्राणायाम, चक्र-भेद, नेति-धोती, अस्ती-बस्ती तथा अष्टांगयोग के समस्त साधनों की तो बात ही क्या हैं ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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