श्रीकृष्णांक
वेणु-गीत
इसके बाद अध्याय 33 से 30 तक 26 अध्यायों में तीसरा ’राजस’ प्रकरण है, उसमें यह दिखलाया गया है कि कर्मों में रुचि वाले जीवों का उद्धार भगवान किस प्रकार करते हैं। तदनन्दर अध्याय 31 से 61 तक के 21 अध्यायों में ’सात्त्विक बने हुए जीवों का भगवान के द्वारा उद्धार होना बतलाया गया है और अन्त कें 3 अध्यायों में ’गुण’ प्रकरण है। इस प्रकार समस्त दशम स्कन्ध में भगवान ने जीवों का निरोध किस प्रकार से फल होता है, ‘निरोध की सिद्धि का भिन्न-भिन्न प्रकारों से होना ही इस में बतलाया है। सब जीव एक स्वभाव के नहीं इसमें बतलाया है। सब जीव एक स्वभाव के नहीं होते। कोई कर्म में आसक्त होता है, किसी की ज्ञान में रुचि होती है तो किसी में कोई भी साधन नहीं होता। इन सभी प्रकार के जीवों का किस प्रकार से उद्धार किया जाय, दशम स्कन्ध में अनेक कथा- उपाख्यानों की योजना के द्वारा यही बात दिखलायी गयी है; जैसे वर्तमान शिक्षा प्रणाली भी तमाम विघार्थियों को एक-सी शक्ति वाले समझकर सबको समान शिक्षा देने की बात नहीं कहती। बुद्धि और ग्रहण-शक्ति की तुलना करके ही शिक्षा दी जाती है और उसी का अच्छा फल होता है, अनाधिकार और बिना विवेक के दी हुई शिक्षा सफल नहीं होती। वैसे ही श्रीमद्वभगवतकार ने यह सोचकर कि सारे जीवों की बुद्धि और प्रकृति भिन्न-भिन्न है, सबके उद्धार का एक मार्ग नहीं हो सकता, प्रकारों का विभाग करके भलीभाँति समझा दिया। ‘तामस’ प्रकरण में भी कई अन्तर्विभाग किये गये हैं- जैसे ‘प्रणाम’[1], प्रमेय[2], साधन[3] और फल[4] श्रीवेणु-गीता का विषय ‘प्रमेय’ प्रकरण के अन्तिम अध्याय में है। प्रमाण में प्रभु अपने निःसाधन भक्तों के निरोध के लिये उन्हें प्रेम-दान करते हैं; ‘प्रमेय’ में वह प्रेम विकसित होकर आसक्ति रूप बन जाता है और ‘साधन’ में भक्ति मार्गीय साधन द्वारा वह ‘व्यसनावस्था’ को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था में शुद्ध भक्ति का फल प्रभु के साथ जीव का रमण अर्थात रासलीला होती है। अर्थात रासलीला होती है। इस तरह‘ तामस’ के अन्तर्विभागों की परस्पर संगति है। अर्थात् रासलीला होती है। इस तरह ‘तामस’ के अन्तर्विभागों की परस्पर संगती है। अर्थात भक्ति की चार अवस्थाएँ- स्नेह, आसक्ति, व्यसन और तन्मयता (फल) स्पष्ट की गयी हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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