श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान्स्वयम
पाश्चात्यों तथा पाश्चात्य संस्कृति प्रेरित भारतीयों की ओर से ऐतिहासिक दृष्टि से आजकल जो ये प्रश्न उठाये जाते हैं कि ‘भगवान श्रीकृष्ण ऐतिहासिक पुरुष थे या नहीं?’ ‘इस सम्बन्ध में श्रीमहाभारत, श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थों मे जो वर्णित घटनाएँ ऐतिहासिक हैं या नहीं ?’ ‘इनके वर्णनों में जो परस्पर विरोध है उसका परिहार कैसे हो सकता है?’ ‘कृष्णोपासना सम्प्रदाय[1]कब से प्रारम्भ हुआ ? इत्यादि; इन प्रश्नों के उत्तर में हम तो ऐतिहासिक प्रमाणों तथा प्रणाली द्वारा उन समसत घटनाओं की ऐतिहासिकता को ही स्थापित करते हैं और मानते हैं; हम यह भी मानते तथा सिद्ध करते हैं कि श्रीकृष्णोपासना अनादिकाल से प्रचारित सम्प्रदाय है, श्रीमद्भागवत श्रीवेदव्यास जी द्वारा रचित है और इसे श्रीशुकदेवजी ने सुनाया था। श्रीमन्महाभारत के श्रीकृष्ण, श्रीमद्भागवत के श्रीकृष्ण और ब्रह्मवैवर्तादि पुराणों के श्रीकृष्ण में इतिहास, गुण, कर्म, उपदेश आदि किसी भी दृष्टि से भी ऐसा कोई भी भेद नहीं है जैसा पाश्चात्य[2] सज्जन तथा उनके अनुयायी भारतीय[3] महोदय बतलाते हैं। इस लेखन में उन प्रमाणों के विवरण में उतरने की आवयश्यकता नहीं है। इसलिये इस विषय को यहीं छोड़कर अब हम अपने विषय पर आते हैं। हमारे इस लेख का उद्देश्य केवल भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के जीवन चरित्र तथा उपदेशों से प्राप्त होने वाली अमूल्य शिक्षा का एक स्थूल सूचीपत्र बनाना ही है। परन्तु इससे पहले हमारे सामने उपोद्घातरूप से अवतारवाद का एक बड़ा प्रश्न उपस्थित होता है, जिसके उत्तर में हम समस्त शास्त्रों के सिद्धान्त का संक्षेप से यही सारांश बतावेंगे कि निर्गुण परमात्मा का सगुण-रूपों से अवतार ग्रहण करना केवल पुराणों से नहीं बल्कि श्रीमद्भवद्गीता के- बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन्। इत्यादि श्लोकों से और नारायणोपनिषत, नृसिंहतापिनी, सीतोपनिषत, रामरहस्योपनिषत, रामतापिनी, वासुदेवोपनिषत्, गोपालतापिनी, कृष्णोपनिषत् आदि अनेक उपनिषदों से भी सिद्ध है। यही नहीं, वेद की पूर्व संहिता के अन्तर्गत पुरुषसूक्त के- ‘अजायमानो बहुधा विजायते’ इस मन्त्र से भी निर्विवाद सिद्ध है। अतः हम अवतारवाद के समर्थन के लिये बहुत प्रमाण देने में समय न लगाकर श्रीमद्भगवद्गीता के एकादश (विश्वरूपदर्यानयोग) अध्याय के प्रसंग और द्वादश (भक्तियोग) अध्याय के बताये हुए सिद्धान्त की ओर जिज्ञासुओं की दृष्टि आकर्षित करना ही पर्याप्त समझते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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