श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
हे विदुरजी ! मैं तो असुरों को भी भगवद्क्त ही मानता हूँ क्योंकि वैर के कारण उनका मन सर्वदा भगवान श्रीकृष्ण में ही लगा रहता है और युद्ध में गरूड़ पर आरूढ़ सुदर्शन चक्र हाथ में लिये हुए त्रिलोकी नाथ ही प्रतिक्षण उनकी दृष्टि में आते हैं वैर से अथवा प्रीति से दोनों प्रकार से भगवान का ध्यान श्रेयस्कर है, फिर भी शिष्ट पुरुषों ने प्रीति से किये जाने वाले भगवान के ध्यान को ही उत्तम माना है। श्रावण का महीना था, व्रजचन्दिनी वृषभानुनन्दिनी सखियों-सहित झूला रही थीं। इतने ही में क्या समाचार मिला कि व्रजचन्द, नन्दनन्दन महाराज फाल्गुन के बदले श्रावण में ही होली खेलने की साम्रगी लेकर हजारों-लाखों सखा और मित्रों सहित बड़ी धूमधाम से बरसाने के बाहर आ पहुँचे। तुरन्त ही करोड़ों सखियों- सहित रंग-गुलाल आदि साम्रगी लेकर लाडिली जी परमानन्द में भरी हुई गाती-बजाती चल दीं। इधर इनका समाज मानसरोवर के पास पहुँचा तो उधर नन्दनन्दन महाराज का यूथ भी आ पहुँचा। दोनों ओर से रंग की गहरी वर्षा होने लगी। प्रथम गुलाब, केवडा, कस्तूरी, केशर, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थों की वर्षा हुई, फिर श्रेवत, पीले, हरे, गुलाबी, बसन्ती, लाल अबीर-गुलाल के भरे कुमकुम छोडे़ गये ! यह लीला तो दूसरे ही हुई। जब दोनों यूथ परस्पर मिल गये तो इस धूमधाम से और घन-घमण्ड से रंग की वर्षा हुई कि परस्पर गुलाल डालने से ऐसा प्रतीत होने लगा कि धरती-आकाश दोनों रंगमय होकर आनन्दरूप हो गये ! हे विदुरजी ! लाडिलीजी के यूथ में सब प्रकार की सामग्री पर्याप्त थी, उनकी सेना भी बहुत सजी हुई विजयरूप थी। उसमें ललिता, विशाखा, श्यामला, श्रीमती, धन्या पह्मा, भद्रा, चन्द्रावती आदि हजारो-लाखों सखी-सहेलियाँ यूथेश्रवरियों सहित थीं, इसलिये व्रजकिशोरी का यूथ प्रबल रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |