श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान्स्वयम
जिस भगवान ने अपने गरीब भक्त सुदामा की एक मुट्ठी सूखे चावल की कनी खाकर उसको अपने संकल्पमात्र से अनायास एक ही साथ बड़ा भारी धनवान-शिरोमणि बना दिया और जिस भगवान की सेवा में श्रीरुक्मिणी जी आदि अनेक रूपों से साक्षात श्रीमहालक्ष्मी की ही सब कलाएँ सेवा करती थीं, क्या उस श्रीपति में ‘श्रियः समग्रायाः’ इस लक्षण के समन्वय के निरूपण का भी प्रयत्न करने की आवश्यकता है ? इतनी साम्राज्य सम्पत्ति, धर्मसम्पत्त्ति, कीर्तिसम्पत्ति तथा धनसम्पत्ति के रहने पर भी, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र में जो वैराग्य और अनासक्ति-सम्पत्ति विराजती थी, उस अद्भुत चमत्कार का कौन वर्णन कर सकता है? कहने वाले अर्थात् कर्म न करके फल चाहने वाले खूब मिलते हैं, परन्तु लगातार दिन-रात अत्यन्त परिश्रम करते हुए भी फल न चाहन वाले तो एक भगवान श्रीकृष्ण ही हैं, जिन्होंने राजा कंस को मारकर उसकी गद्दी पर उग्रसेन को बैठाया, जरासन्ध तथा नरकासुर का मरवाकर तथा मारकर उनके पुत्रों को ही सिंहासन प्रदान किया और स्वयं जीवनभर में एक बार भी किसी राज्य आदि को नहीं अपनाया। इससे स्पष्ट है कि भगवान में वित्तैषणा बिल्कुल नहीं थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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