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श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्णलीला के अन्ध अनुकरण से हानि
सच्चिदाननन्दघन भगवान श्रीकृष्ण और उनकी आत्मस्वरूपिणी जगज्जननी श्रीराधिकाजी का चरण सेवक बनकर भी क्या कोई कभी चोरी-जोरी आदि पापकर्म कर सकता है। भगवान के सच्चे मने से लिये हुए एक नाम ही से जब सारे पापों का समूह भस्म हो जाता है तो भगवान के चरण सेवकों में तो पापप्रवृत्ति रह ही कैसे सकती है? वैराग्य और त्याग तो भगवद्भक्ति की की आधारशिला है। जो अपने मन से विषयों का त्याग नहीं करता, भोगों की स्पृहा नहीं छोड़ता, वह भगवान का भक्त ही कैसे बन सकता है ? भक्त को तो अपना सर्वस्व, लोक-परलोक और मोक्ष तक भगवान के चरणों पर निछावर कर सर्वथा अकिंचन बन जाना पड़ता है। भगवत्प्रेमी भोगी कैसे हो सकता है ? अतएव जो भगवत-प्रेम के नाम पर भोग का उपदेश करते हैं, उनसे और उनके उपदेशों से सदा सावधान रहना चाहिये। दु:ख की बात है कि श्रीमद्भागवत की रासपंचाध्यायी का भ्रान्त अनुकरण करने जाकर कामवासना से स्त्रियों से मिलने-जुलने में तो कोई आपत्ति नहीं मानी जाती, यहाँ तो भगवान के लीलानुकरण का नाम लिया जाता है परन्तु उसी श्रीमद्भागत के ‘स्त्रीणां स्त्रीसंगिनां संगं त्यक्त्वा दूर आत्मवान्’ ‘आम्वान को चाहिये कि वह स्त्रियों के ही नहीं, स्त्रीसंगियों के संग को भी दूर से त्याग दे’ इस उपदेश पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। श्रीमद्भागवत और श्रीकृष्णप्रेम के एवं माधुर्य रस के मर्म समझने वाले तो श्रीचैतन्य महाप्रभु थे जो मधुर रस के उपासक होकर भी धन और स्त्री से सर्वथा दूर रहते थे। त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:। काम, क्रोध और लोभ ये तीन नरक के दरवाजे और आत्मा को अधोगति में ले जाने वाले हैं, इसलिये इन तीनों का सर्वथा त्याग कर दो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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