- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 145 में मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति के उपाय का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
दीक्षा ग्रहण का वर्णन
तुम एकचित्त होकर इसे सुनो। ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय पहले घर में स्थित रहकर सब प्रकार के ऋणों से उऋण हो अन्त में उन घरों का परित्याग कर दे। इस तरह गार्हस्थ्य-आश्रम को त्याग कर वह निश्चितरूप से वन का आश्रय ले। वन में गुरु की आज्ञा ले विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करे और दीक्षा पाकर यथोचित रीति से अपने सदाचार का पालन करे। तदनन्तर गुरु से मोक्ष ज्ञान को ग्रहण करे और अनिन्द्य आचरण से रहे। मोक्ष भी दो प्रकार का है- एक सांख्य-साध्य और दूसरा योग-साध्य। ऐसा शास्त्र का कथन है। पचीस तत्त्वों का ज्ञान सांख्य कहलाते है। अणिमा आदि ऐश्वर्य और देवताओं के समान रूप- यह योग शास्त्र का निर्णय है। इन दोनों में से किसी एक ज्ञान का शिष्यभाव से श्रवण करे। न तो असमय में, न गेरूआ वस्त्र धारण किये बिना, न एक वर्ष तक गुरु की सेवा में रहे बिना, न सांख्य या योग में से किसी को अपनाये बिना और न श्रद्धा के बिना ही गुरु का स्नेहपूर्वक उपदेश ग्रहण करे। जो सर्वत्र समान भाव रखते हुए सर्दी-गर्मी और हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वों को सहन करे, वही मुनि है।
भूख-प्यास के वशीभूत न हो, उचित भोगों से भी अपने मन को हटा ले, संकल्पजनित ग्रन्थियों को त्याग दे और सदा ध्यान में तत्पर रहे। कुंडी, चमस (प्याली), छींका, छाता, लाठी, जूता और वस्त्र- इन वस्तुओं में भी अपना स्वामित्व स्थापित न करे। गुरु से पहले उठे और उनसे पीछे सोचे। स्वामी (गुरु) को सूचित किये बिना किसी आवश्यक कार्य के लिये भी न जाय। प्रतिदिन दिन में दो बार दोनों संध्याओं के समय वस्त्र सहित स्नान करे। उसके लिये चौबीस घंटे में एक समय भोजन का विधान है। पूर्वकाल के यतियों ने ऐसा ही किया है। सर्वत्र भिक्षा ग्रहण करे, रात में सदा परमात्मा का चिन्तन करे, कोप का कारण प्राप्त होने पर भी कभी कुपित न हो।
ब्रह्मचर्य, वनवास, पवित्रता, इन्द्रियसंयम और समस्त प्राणियों पर दया- यह संन्यासी का सनातन धर्म है। वह समस्त पापों से दूर रहकर हल्का भोजन करे, इन्द्रियों को संयम में रखे और परमात्मचिन्तन में लगा रहे। इससे उसे पापनाशिनी श्रेष्ठ बुद्धि प्राप्त होती है। जब मन, वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति पापभाव नहीं करता, तब वह यति ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। निष्ठुरताशून्य, अहंकाररहित, द्वन्द्वातीत और मात्सर्यहीन यति शाक, भय और बाधा से रहित हो सर्वोत्तम ब्रह्मपद को प्राप्त होता है। जिसकी दृष्टि में निन्दा और स्तुति समान है, जो मौन रहता है, मिट्टी के ढेले, पत्थर और सुवर्ण को समान समझता है तथा जिसका शत्रु और मित्र के प्रति समभाव है, वह निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है। ऐसे आचरण से युक्त, तत्पर और अध्यात्मचिन्तनशील यति उसी ज्ञानाभ्यास से परमगति को प्राप्त कर लेता है।[1]
मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
इस संसार-मण्डल में जिस प्राणी की बुद्धि उद्वेगशून्य है, वह शोक, व्याधि और वृद्धावस्था के दुखों से मुक्त हो निर्वाण को प्राप्त होता है। इसलिये संसार से वैराग्य उत्पन्न कराने वाले और मन को स्थिर रखने वाले ज्ञान का तुम्हारे लिये उपदेश करूँगा, क्योंकि अमृत (मोक्ष) का मूल कारण ज्ञान ही है। शोक के सहस्रों और भय के सैकड़ों स्थान हैं। वे मूर्ख मनुष्य पर ही प्रतिदिन प्रभाव डालते हैं, विद्वान पर नहीं। धन नष्ट हो जाय अथवा स्त्री, पुत्र या पिता की मृत्यु हो जाय, तो ‘अहो! मुझ पर बड़ा भारी दुख आ गया।’ ऐसा सोचता हुआ मनुष्य शोक के आश्रय में आ जाता है। किसी भी द्रव्य के नष्ट हो जाने पर जो उसके शुभ गुण हैं, उनका चिन्तन न करे। उन गुणों का आदर न करने वाले पुरुष के शोक का बन्धन नष्ट हो जाता है। अप्रिय वस्तु का संयोग और प्रिय वस्तु का वियोग प्राप्त होने पर अल्पबुद्धि मनुष्य मानसिक दुखों से संयुक्त हो जाते हैं। जो मरे हुए पुरुष या खोयी हुई वस्तु के लिये शोक करता है, वह केवल संताप का भागी होता है। उसका वह दुख मिटता नहीं है। मनुष्य-योनि में उत्पन्न हुए मानव के पास गर्भावस्था से ही नाना प्रकार के दुख और सुख आते रहते हैं। उनमें से कोई एक मार्ग यदि इसे प्राप्त हो तो यह मनुष्य सुख पाकर हर्ष न करे और दुख पाकर चिन्तित न हो। जहाँ आसक्ति हो रही हो, वहाँ दोष देखना चाहिये। उस वस्तु को अनिष्ट की दृष्टि से देखे, जिससे उसकी ओर से शीघ्र ही वैराग्य हो जाय।[2]
जैसे महासागर में दो काठ इधर-उधर से आकर मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार जाति-भाइयों का समागम होता है। सब लोग अदृश्य स्थान से आये थे और पुनः अदृश्य स्थान को चले गये। उनके प्रति स्नेह नहीं करना चाहिये, क्योंकि उनके साथ वियोग होना निश्चित था। कुटुम्ब, पुत्र, स्त्री, शरीर, धनसंचय, ऐश्वर्य और स्वस्थता- इनके प्रति विद्वान पुरुष को आसक्त नहीं होना चाहिये। स्वर्ग में रहने वाले देवराज इन्द्र को भी केवल सुख-ही-सुख नहीं मिलता। वहाँ भी दुख अधिक और सुख बहुत कम है। किसी को भी न तो सदा दुख मिलता है और न सदा सुखी ही मिलता है।
सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख आता रहता है। सारे संग्रहों का अन्त विनाश है, सारी उन्नतियों का अन्त पतन है, संयोग का अन्त वियोग है और जीवन का अन्त मरण है। उत्थान और पतन को स्वयं ही प्रत्यक्ष देखकर यह निश्चय करे कि यहाँ का सब कुछ अनित्य और दुखरूप है। धन के उपार्जन में दुख होता है, उपार्जित हुए धन की रक्षा में दुख होता है, धन के नाश और व्यय में भी दुख होता है, इस प्रकार दुख के भोजन बने हुए धन को धिक्कार है। धनवान मनुष्य पर सदा पाँच शत्रु चोट करते रहते हैं- राजा, चोर, उत्तराधिकारी भाई-बन्धु, अन्यान्य प्राणी तथा क्षय। प्रिये! इस प्रकार तुम अर्थ को अनर्थ का मूल समझो। धनरहित पुरुष को अनर्थ बाधा नहीं देते हैं। धन की प्राप्ति महान दुख है और अकिंचनता (निर्धनता) परम सुख है, क्योंकि जब धन पर उपद्रव आते हैं, तब निश्चय ही बड़ा दुख होता है। धन के लोभ से तृष्णा की कभी तृप्ति नहीं होती है।
तृष्णा या लोभ को आश्रन्य मिल जाय तो प्रज्वलित अग्नि के समान उसकी वृद्धि होने लगती है। चारों समुद्र जिसकी मेखला है, उस सारी पृथ्वी को जीतकर भी मनुष्य संतुष्ट नहीं होता। वह फिर समुद्र के पार वाले देशों को भी जीतने की इच्छा करता है, इसमें संशय नहीं है। परिग्रह (संग्रह) से यहाँ कोई लाभ नहीं, क्योंकि परिग्रह दोष से भरा हुआ है। देवि! रेशम का कीड़ा परिग्रह से ही बन्धन को प्राप्त होता है। जो राजा अकेला ही समूची पृथ्वी का एकच्छत्र शासन करता है। वह भी किसी एक ही राष्ट्र में निवास करता है। उस राष्ट्र में भी किसी एक ही नगर में रहता है। उस नगर में भी किसी एक ही घर में उसका निवास होता है। उस घर में भी उसके लिये एक ही कमरा नियत होता है। उस कमरे में भी उसके लिये एक ही शय्या होती है, जिस पर वह रात में सोता है। उस शय्या का भी आधा ही भाग उसके पल्ले पड़ता है। उसका आधा भाग उसकी रानी के काम आता है। इस प्रसंग से वह अपने लिये थोड़े से ही भाग का उपयोग कर पाता है। तो भी वह मूर्ख गवाँर सारे भूमण्डल को अपना ही समझता है और सर्वत्र अपना ही बल देखता है। इस प्रकार सभी वस्तुओं के उपयोगों में उसका थोड़ा सा ही प्रयोजन होता है। प्रतिदिन सेरभर चावल से ही समस्त देहधारियों की प्राणयात्रा का निर्वाह होता है। उससे अधिक भोग दुख और संताप का कारण होता है।[3]
तृष्णा के समान कोई दुख नहीं है, त्याग के समान कोई सुख नहीं है। समस्त कामनाओं का परित्याग करके मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। खोटी बुद्धि वाले मनुष्यों के लिये जिसका त्याग करना अत्यन्त कठिन है, जो मनुष्य के बूढ़े हो जाने पर स्वयं बूढ़ी नहीं होती तथा जिसे प्राणनाशक रोग कहा गया है, उस तृष्णा का त्याग करने वाले को ही सुख मिलता है। भोगों की तृष्णा कभी भोग भोगने से शान्त नहीं होती, अपितु घी से प्रज्वलित होने वाली आग के समान अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। भोगों की प्राप्ति न होने से ही विद्वान पुरुष शोक को त्याग देता है।
आयासरूपी वृक्ष पर तीव्र वेग से प्रज्वलित और आकर्षणरूपी अग्नि से प्रकट हुई कामनारूप अग्नि मूर्ख मनुष्य को विषयों द्वारा मोहित करके जला डालती है। इस पृथ्वी पर जो धान, जौ, सोना, पशु और स्त्रियाँ हैं, वे सब मिलकर एक पुरुष के लिये पर्याप्त नहीं हैं। ऐसा देखने और समझने वाला पुरुष मोह में नहीं पड़ता है। लोक में जो काम-सुख है और परलोक में जो महान दिव्य सुख है- ये दोनों मिलकर तृष्णाक्षयजनित सुख की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हो सकते। धीर पुरुष अपनी इन्द्रियों को विषयों में न लगावे। मनसहित उनका संयम करके उन्हें सदा परमात्मा के ध्यान में नियुक्त करे। इन्द्रियों को खुली छोड़ देने से निश्चय ही दोष की प्राप्ति होती है और उन्हीं का संयम कर लेने से मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है। जो परमात्म-चिन्तन में लगी हुई मनसहित छहों इन्द्रियों पर प्रभुत्व स्थापित कर लेता है, वह विद्वान पापों और अनर्थों से संयुक्त नहीं होता है।
विद्वान पुरुष सावधान रहकर सदा अपनी इन्द्रियों की रक्षा करे, क्योंकि उनकी रक्षा न होने पर मनुष्य शीघ्र ही नरक में गिर जाता है। एक काममय वृक्ष है, जो मोह-संचयरूपी बीज से उत्पन्न हुआ है। वह काममय विचित्र वृक्ष हृदयदेश में ही स्थित है। अज्ञान ही उसकी मजबूत जड़ है। सकाम कर्म करने की इच्छा ही उसे सींचना है। रोष और लोभ ही उसका विशाल तना है। पाप ही उसका सार भाग है। आयास-प्रयास ही उसकी शाखाएँ हैं। तीव्र शोक पुष्प है, भय अंकुर है। नाना प्रकार के संकल्प उसके पत्ते हैं। यह प्रमाद से बढ़ा हुआ है। बड़ी भारी पिपासा या तृष्णा ही लता बनकर उस काम-वृक्ष में सब ओर लिपटी हुई है। अज्ञानी मनुष्य में ही यह काममय वृक्ष उत्पन्न होता और बढ़ता है। तत्त्वज्ञ पुरुष में यह नहीं अंकुरित होता है। यदि हुआ भी तो पुनः कट जाता है। यह काम कठिन उपायों से साध्य है, अनित्य है, उसके फल निःसार हैं, उसका आदि और अन्त भी दुखमय है, उससे सम्बन्ध जोड़ने में क्या अनुराग हो सकता है?
शुभे! इन्द्रियाँ सदा जीर्ण हो रही हैं, आयु नष्ट होती चली जा रही है और मौत सामने खड़ी है- यह सब देखते हुए किसी को संसार में क्या सुख प्रतीत होगा? मनुष्य सदा शारीरिक और मानसिक व्याधियों से पीड़ित होता है और अपनी अधूरी इच्छाएँ लिये ही मर जाता है। अतः यहाँ कौन सा सुख है? मानव अपने मनोरथों की पूर्ति का उपाय सोचता रहता है और कामनाओं से अतृप्त ही बना रहता है।[4]
तभी जैसे जंगल में बाघ आकर सहसा किसी पशु को दबोच लेता है, उसी प्रकार मौत उसे उठा ले जाती है। जन्म, मृत्यु और जरा-सम्बन्धी दुखों से सदा आक्रान्त होकर संसार में मनुष्य पकाया जा रहा है, तो भी वह पाप से उद्विग्न नहीं हो रहा है।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-56
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-57
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-58
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-59
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 145 भाग-60
संबंधित लेख
महाभारत अनुशासन पर्व में उल्लेखित कथाएँ
दान-धर्म-पर्व
युधिष्ठिर की भीष्म से उपदेश देने की प्रार्थना
| भीष्म द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन
| प्रजापति मनु के वंश का वर्णन
| अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय
| विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति विषयक युधिष्ठिर का प्रश्न
| अजमीढ के वंश का वर्णन
| विश्वामित्र के जन्म की कथा
| विश्वामित्र के पुत्रों के नाम
| इन्द्र और तोते का स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुष की श्रेष्ठता विषयक संवाद
| दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का वर्णन
| कर्मों के फल का वर्णन
| श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा
| ब्राह्मण विषयक सियार और वानर के संवाद का वर्णन
| शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा
| लक्ष्मी के निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानों का वर्णन
| भीष्म का युधिष्ठिर से कृतघ्न की गति और प्रायश्चित का वर्णन
| स्त्री-पुरुष का संयोग विषयक भंगास्वन का उपाख्यान
| भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश
| भीष्म का श्रीकृष्ण से महादेव का माहात्म्य बताने का अनुरोध
| श्रीकृष्ण द्वारा महात्मा उपमन्यु के आश्रम का वर्णन
| उपमन्यु का शिव विषयक आख्यान
| उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या
| उपमन्यु द्वारा महादेव की स्तुति
| उपमन्यु को महादेव का वरदान
| श्रीकृष्ण को शिव-पार्वती का दर्शन
| शिव और पार्वती का श्रीकृष्ण को वरदान
| महात्मा तण्डि द्वारा महादेव की स्तुति और प्रार्थना
| महात्मा तण्डि को महादेव का वरदान
| उपमन्यु द्वारा शिवसहस्रनामस्तोत्र का वर्णन
| शिवसहस्रनामस्तोत्र पाठ का फल
| ऋषियों का शिव की कृपा विषयक अपने-अपने अनुभव सुनाना
| श्रीकृष्ण द्वारा शिव की महिमा का वर्णन
| अष्टावक्र मुनि का उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान
| कुबेर द्वारा अष्टावक्र का स्वागत-सत्कार
| अष्टावक्र का स्त्रीरूपधारिणी उत्तर दिशा के साथ संवाद
| अष्टावक्र का वदान्य ऋषि की कन्या से विवाह
| युधिष्ठिर के विविध धर्मयुक्त प्रश्नों का उत्तर
| श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण
| देवता और पितरों के कार्य में आमन्त्रण देने योग्य पात्रों का वर्णन
| नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन
| ब्रह्महत्या के समान पापों का निरूपण
| विभिन्न तीर्थों के माहात्मय का वर्णन
| गंगाजी के माहात्म्य का वर्णन
| ब्राह्मणत्व हेतु तपस्यारत मतंग की इन्द्र से बातचीत
| इन्द्र द्वारा मतंग को समझाना
| मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान
| वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध
| प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध
| वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा
| नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण
| नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन
| वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा
| वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति
| भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन
| भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा
| ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद
| दानपात्र की परीक्षा
| पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन
| युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न
| भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा
| विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना
| विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति
| विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान
| विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना
| देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना
| भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश
| कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार
| कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार
| स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन
| ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन
| वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन
| नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन
| गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ
| च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना
| नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना
| च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन
| च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति
| राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा
| च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना
| च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना
| च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना
| च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान
| च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना
| विविध प्रकार के तप और दानों का फल
| जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल
| भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा
| भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश
| श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल
| राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश
| भूमिदान का महत्त्व
| भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| अन्न दान का विशेष माहात्म्य
| विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य
| सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा
| जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य
| अन्न और जल के दान की महिमा
| तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य
| गोदान की महिमा
| गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति
| राजा नृग का उपाख्यान
| पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना
| यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन
| गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना
| दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम
| गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य
| व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व
| गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना
| गोदान करने वाले नरेशों के नाम
| कपिला गौओं की उत्पत्ति
| कपिला गौओं की महिमा का वर्णन
| वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना
| गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति
| विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति
| गौओं तथा गोदान की महिमा
| व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन
| व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन
| व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन
| लक्ष्मी और गौओं का संवाद
| गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना
| ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना
| ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना
| भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना
| सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा
| पार्वती का देवताओं को शाप
| तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना
| ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन
| देवताओं द्वारा अग्नि की खोज
| गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना
| कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति
| महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति
| कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण
| कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध
| विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल
| श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन
| विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल
| पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन
| पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन
| श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता
| निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान
| श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश
| विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन
| पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना
| श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद
| भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना
| वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा
| भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा
| इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत
| अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ
| इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना
| सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना
| जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना
| छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा
| गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद
| तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद
| नहुष का ऋषियों पर अत्याचार
| महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप
| नहुष का पतन
| शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा
| ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद
| ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति
| धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद
| ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद
| आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन
| गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण
| बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन
| माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन
| मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन
| दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन
| मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता
| द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य
| मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन
| बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद
| विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन
| पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा
| बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना
| हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा
| मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा
| मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा
| द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त
| कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन
| कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति
| दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य
| विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा
| तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश
| पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन
| नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश
| ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त
| श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद
| पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद
| धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद
| वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद
| विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन
| वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन
| लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन
| अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन
| दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव
| महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन
| भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन
| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज