भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अपनी बात
नहीं जानता, कृष्णचन्द्र जीवन में कब आया, किन्तु यह भली प्रकार जानता हूँ कि नन्द-तनय ने मेरे साथ भरपूर पक्षपात किया है। समदरसी मोहि कह सब कोऊ।। सनातन धर्म ने कर्म का निर्णय-न्याय करने का काम यमराज को दे दिया है। ईश्वर का काम न्याय करना नहीं है। कोई पिता अपने पुत्रों का न्याय क्या करेगा। ईश्वर तो अनन्त करुणा-वरुणालय है, दयासिन्धु है- सबके लिए। वह किसी के कभी अपराध देखता ही नहीं। उसके विधान में एक ही बात है- जीव का मंगल। ये रोग-शोक, संयोग-वियोग, मरण और धन-हरण आदि दण्ड हैं कर्म-नियन्ता के, यह बात भी बच्चों की है। ये सब जीव के अपने लपेटे मल को शुद्ध करने के साधन हैं। यह सर्वसामान्य जीवन की बात- लेकिन भगवान सर्वसामान्य के लिए जैसा है, भक्तों के लिए भी वैसा ही नहीं है। वह ‘सेवक प्रिय’ भक्त वत्सल, भक्त पक्षपाती है; भक्त सामने हो तो उसे फिर सम्पूर्ण सृष्टि भूल जाती है। बात इतनी ही नहीं है। ब्रज-राजकुमार कब किसके गले में हाथ डालकर कह देगा ‘तू मेरा’ -कोई नियम नहीं है। वह प्रलम्ब और व्योम जैसों को भी सखा स्वीकार करने में हिचकता नहीं। मुझमें धर्म, संयम, साधना कुछ कभी नहीं रही और श्याम इतने पर भी बलात सदा मेरा पक्षधर रहा। मैं बन्धन में पता नहीं कितनी बार कूदने को आतुर हुआ और यह पाश-छेत्ता सदा सजग रहा। अब इस प्रकार जो अपना बने, वह अन्तर में कब आया- यह कैसे कहा जाय; किन्तु जब मैंने लेखन के क्षेत्र में प्रवेश किया तो गोस्वामी तुलसीदास जी की श्रीकृष्ण-गीतावली का अनुवाद पहिली पुस्तक थी। वह बहुत पीछे ‘मानस-मणि’ में क्रमश: निकली। सन 1936 में वृन्दावन आया तो पहिली मौलिक पुस्तक लिखी गयी- ‘त्रिभुवन सुन्दर’। यह 'संकीर्तन' मासिक-पत्र[2] के विशेषांक ‘श्रीकृष्ण चरितांक’ के रूप में निकली। लेकिन इस विशेषांक के साथ ही ‘संकीर्तन’ बन्द हो गया। अत: उस चरित का प्रचार नहीं हुआ। वृन्दावन में ही एक रचना और प्रारम्भ की थी- ‘सखाओं का कन्हैया’ लेकिन वह अपूर्ण रह गयी और पाण्डुलिपि भी सुरक्षित नहीं रही। ‘कल्याण’ का ‘उपनिषद् अंक’ निकलने वाला था, जब मैं कल्याण परिवार का सदस्य बनकर गीता वाटिका पहुँचा। वहीं ‘श्रीकृष्ण चरित’ का पूर्वार्ध लिखा गया और वहाँ से राम वन आने पर उसका उत्तरार्ध पूर्ण हुआ। उत्तरार्ध तो प्रकाशक के पास ही पड़ा रहा, अब भी पड़ा है। पूर्वार्ध बहुत रुचा था, श्रीस्वामी चक्रधर जी महाराज को; और उनके द्वारा प्रेरित भाई श्री शिवनाथ जी दुबे के प्रयत्न से मोतीलाल बनारसी दास ने उसे प्रकाशित किया था। अब उनके यहाँ वह अनुपलब्ध हो गया है। वैसे भाई देवधरजी शास्त्री उसे मासिक-पत्र ‘श्रीकृष्ण-सन्देश’[3] में एक-एक अध्याय प्रति मास देते रहे हैं। इनके अतिरिक्त ‘कल्याण’ के 'हिन्दू-संस्कृति’ अंक में संक्षिप्त ‘श्रीकृष्ण-चरित’, ‘बालकांक’ में ‘श्रीकृष्ण बाल-चरित’, गीता प्रेस से बालकों के लिए छपा, ‘भगवान श्रीकृष्ण’ आदि छोटे रूपों में कई श्रीकृष्ण-चरित लिखने का अवसर आया है। लेकिन ‘श्रीकृष्ण-चरित’ जो मोतीलाल बनारसी दास ने छापा, उसे दूसरों ने चाहे जितना पसन्द किया हो, उसे पूरा करते ही मुझे लगा कि यह तो कुछ भी नहीं हुआ। तभी संकल्प बना था कि एक श्रीकृष्ण-चरित और लिखना है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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