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− | वह परमेश्वर | + | वह परमेश्वर परमात्मा स्व-स्वरूप से अविज्ञेय है, स्वरूप लक्षण द्वारा हम उसे पहिचान नहीं सकते। वह सबमें निलीन-निमूढ़ है, किन्तु जगत् जो कि प्रत्यक्ष है, वह भी उससे पृथक नहीं। वही जगत है और वही जगत का नियन्ता है, इसलिये जगत में जो-जो रूप उसके जगत का नियमन करते दिखाई देते हैं, उनके द्वारा ही हम परमामा को पहचान सकते हैं, वे ही परमेश्वर के ‘अवतार’ हैं, दूसरे शब्दों में यह कहिये कि क्षर-पुरुष में अव्यय-पुरुष की जो कलाएँ परिचित होती हैं, वे ही ‘अवतार’ हैं उनके द्वारा ही अवयय-पुरुष उपास्य या ध्येय होता है। इसी कारण अवतार का वाचक श्रीमद्भागवतादि में ‘अविर्भाव’ शब्द भी आया है और जगद्व्यापी विराट् रूप को ही भागवत में पहला अवतार बताया गया है- '''‘एतन्ननावताराणां निधानं बीजमव्ययम्’''' जगत् में परमात्मा जो आविर्भूत होता है सो मानो अपने स्व-स्वरूप-स्वाधाम से जगत में उतरता है, अव्यय पूरुष ही क्षर रूप में उतरकर आया है, इसलिये इसे ‘अवतार’ कहते हैं। |
− | + | परमात्मा का रूप ‘सत्य’ है, वह तीनों कालों में, सब देशों में, सब दशाओं में अबाधित रहता है, कारण को सत्य कहते हैं, वह सबका कारण है- इसलिये पदम सत्य है। वह सत्य जगत् में ‘नियति’ रूप से प्रकट है। प्रत्येक पदार्थ के भीतर एक नियम काम कर रहा है, जल सदा नीचे की ओर ही जाता है, अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को ही उठती है, वायु सदा तिरछी ही चलती है, सूर्य नियत समय पर ही उदय होता है, हरिण के दोनों सींग बराबर नाप में बढ़ते हुए सूनरूप से मुड़ते हैं, बेर के वृक्ष में प्रत्येक पर्व पर दो काँटे पैदा होते हैं- जिनमें एक मुड़ जाता है- एक चाड़ा रहता है। वसन्त ऋतु आते ही आम के वृक्षों में मन्जरी निकलने लगती है। इस प्रकार सब जगत को अपने-अपने धर्म में नियत रूप से स्थिर रखने वाली शक्ति जिसमें कि चेतना भी अनुस्यूत है, अन्तर्यामी, नियति वा सत्य शब्द से कही जाती है। कह सकते हैं कि उस परम सत्य का नियति रूप से यह जगत में अवतार है। इसी प्रकार सत्, चित्, आनन्द परमात्मा के रूप शास्त्रों में वर्णित हैं, उनका जगत् में प्रतिष्ठा, ज्योति और यज्ञ के रूप में अवतार होता है। | |
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01:03, 27 मार्च 2018 का अवतरण
श्रीकृष्णांक
कृष्णावतार पर वैज्ञानिक दृष्टि
वह परमेश्वर परमात्मा स्व-स्वरूप से अविज्ञेय है, स्वरूप लक्षण द्वारा हम उसे पहिचान नहीं सकते। वह सबमें निलीन-निमूढ़ है, किन्तु जगत् जो कि प्रत्यक्ष है, वह भी उससे पृथक नहीं। वही जगत है और वही जगत का नियन्ता है, इसलिये जगत में जो-जो रूप उसके जगत का नियमन करते दिखाई देते हैं, उनके द्वारा ही हम परमामा को पहचान सकते हैं, वे ही परमेश्वर के ‘अवतार’ हैं, दूसरे शब्दों में यह कहिये कि क्षर-पुरुष में अव्यय-पुरुष की जो कलाएँ परिचित होती हैं, वे ही ‘अवतार’ हैं उनके द्वारा ही अवयय-पुरुष उपास्य या ध्येय होता है। इसी कारण अवतार का वाचक श्रीमद्भागवतादि में ‘अविर्भाव’ शब्द भी आया है और जगद्व्यापी विराट् रूप को ही भागवत में पहला अवतार बताया गया है- ‘एतन्ननावताराणां निधानं बीजमव्ययम्’ जगत् में परमात्मा जो आविर्भूत होता है सो मानो अपने स्व-स्वरूप-स्वाधाम से जगत में उतरता है, अव्यय पूरुष ही क्षर रूप में उतरकर आया है, इसलिये इसे ‘अवतार’ कहते हैं। परमात्मा का रूप ‘सत्य’ है, वह तीनों कालों में, सब देशों में, सब दशाओं में अबाधित रहता है, कारण को सत्य कहते हैं, वह सबका कारण है- इसलिये पदम सत्य है। वह सत्य जगत् में ‘नियति’ रूप से प्रकट है। प्रत्येक पदार्थ के भीतर एक नियम काम कर रहा है, जल सदा नीचे की ओर ही जाता है, अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को ही उठती है, वायु सदा तिरछी ही चलती है, सूर्य नियत समय पर ही उदय होता है, हरिण के दोनों सींग बराबर नाप में बढ़ते हुए सूनरूप से मुड़ते हैं, बेर के वृक्ष में प्रत्येक पर्व पर दो काँटे पैदा होते हैं- जिनमें एक मुड़ जाता है- एक चाड़ा रहता है। वसन्त ऋतु आते ही आम के वृक्षों में मन्जरी निकलने लगती है। इस प्रकार सब जगत को अपने-अपने धर्म में नियत रूप से स्थिर रखने वाली शक्ति जिसमें कि चेतना भी अनुस्यूत है, अन्तर्यामी, नियति वा सत्य शब्द से कही जाती है। कह सकते हैं कि उस परम सत्य का नियति रूप से यह जगत में अवतार है। इसी प्रकार सत्, चित्, आनन्द परमात्मा के रूप शास्त्रों में वर्णित हैं, उनका जगत् में प्रतिष्ठा, ज्योति और यज्ञ के रूप में अवतार होता है। |