श्रीकृष्णांक
अद्भुतकर्मी श्रीकृष्ण
फिर सब पहाड़ पर गये, भगवान श्रीकृष्ण स्वयं वहाँ दूसरे चतुर्भुज विशाल रुप में प्रकट हो गये। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने ही दूसरे शरीर को व्रजवासियों सहित प्रणाम किया और स्वयं उनकी पूजा करने लगे। इस प्रकार पूजा कर-करवाकर भगवान सबको साथ लेकर व्रज में लौअ आये। इन्द्र ने इस घटना से अपना बड़ा अपमान समझा और वह व्रज को विध्वंस करने के लिए प्रलयकालीन वर्षा करने लगे। बिजली कड़काने, ओले बरसाने, आंधी चलाने और जलराशि बरसाने में इन्द्र जहाँ तक शक्ति रखता था, आज उसका पूरा प्रयोग करने को तैयार हो गया। गोप-गोपियां घबराकर श्रीकृष्ण के शरणापन्न हुई, भगवान ने उन्हें धीरज देकर लीलापूर्वक एक ही हाथ से गोवर्धन गिरि को वैसे ही उखाड़कर उठा लिया, जैसे कोई बच्चा खेलते-खेलते धरती के बरसाती छत्ते को अनायास ही उखाड़ ले- इत्यक्तैकेन हस्तेन कृत्वा गोवर्धनाचलम् । समस्त व्रजवासी अपने घर के सामान और गाय-बैलों को लकर उसके नीचे आ गये। श्रीकृष्ण ने भूख, प्यास, व्यथा और सुख की इच्छा छोड़कर इस प्रकार लगातार सात दिनों तक पहाड़ को उसी प्रकार अचल- अटल रुप से हाथ पर उठाये रखा। गोप-गोपियां भगवान के इस अलौकिक कर्म को देखकर तथा अपने को ऐसे महान परम पुरुष के कृपापात्र समझकर आश्चय्र तथा प्रेमभरी एकटक दृष्टि से श्रीकृष्ण के अम्लान मधुर-मुख की ओर देखती रहीं। भगवान के इस अद्भुत कार्य को देखकर इन्द्र चकरा गया, उसका सारा अभिमान चूर्ण हो गया। इन्द्र ने थककर वर्षा बन्द कर दी, सूर्यदेव निकल आये, गोप-गोपी पहाड़ से निकलकर श्रीकृष्ण को यथायोग्य सत्कार, पूजन, आलिंगन और आशीर्वाद से प्रसन्न करने लगीं। इन्द्र आया और उसने आते ही अपना सूर्यसदृश तेजपूर्ण मुकुट उतारकर भगवान के चरणों पर रख दिया और स्तुति करते हुए उसने अन्त में कहा- मयेदं भगवन्गोष्ठनायासारवायुभि: । ‘भगवन ! मुझको बड़ा अभिमान था, इसी से यज्ञ का न होना देखकर मैंने क्रोध में पागल हो प्रचण्ड वर्षा और तूफान से व्रज को विध्वंस करना चाहा था। हे स्वामिन् ! आपने मेरा दर्प चूर्ण करके बड़ा ही अनुग्रह किया, मेरा उद्योग नष्ट होने से मुझे मालूम हो गया कि मुझसे भी अधिक शक्तिशाली कोई है। अब मैं ईश्वर, गुरु और आत्मस्वरुप आपकी शरण में आया हूं, मेरी रक्षा कीजिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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