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− | उनको पर्वत, बालू तथा नदियों के सहवास में उतना ही आनन्द आता था जितना किसी चेतन प्रेमी के सहवास में। उनके प्रेम ने भगवान की दृष्टि में उन्हें देवताओं से भी ऊँचा बना दिया था। इसीलिये उन्होंने नन्द बाबा को देवराज इन्द्र की पूजा करने के लिये मना किया और कहा कि आप इस हमारे प्रिय मित्र | + | उनको पर्वत, बालू तथा नदियों के सहवास में उतना ही आनन्द आता था जितना किसी चेतन प्रेमी के सहवास में। उनके प्रेम ने भगवान की दृष्टि में उन्हें देवताओं से भी ऊँचा बना दिया था। इसीलिये उन्होंने नन्द बाबा को देवराज इन्द्र की पूजा करने के लिये मना किया और कहा कि आप इस हमारे प्रिय मित्र गोवर्धन की और गौओं की पूजा कीजिये। कृष्णपरायण श्रीनन्द जी ने इस बात को स्वीकार किया और गोवर्धन की पूजा कि। इसका कारण यही था कि जो बात भगवान को रूचती थी। वही सबके मन भाती थी, क्योंकि वे ही अखिल प्रेम के आधार थें। कहीं मतभेद का नाम भी नहीं था, सर्वत्र एकता का साम्राज्य था। गोपियों ने भी उस पर्वत को सबका महान प्रेमी सेवक समझकर बडे़ प्रेम से उसी की पूजा की। वे वृक्षों को तो सेवा भाव की साक्षात मूर्ति समझकर सदा ही उनके प्रति श्रद्धा तथा प्रेम रखते थें। एक स्थल पर आप बलराम जी से कहते हैं भाई ! देखों ये वृक्ष किस प्रकार फूल और फलों से भार से झुक कर आपका स्वागत कर रहे है<ref>भगवान श्रीबलरामजी से कहते हैं-<poem style="text-align:center">अहो अमी देववरामरार्चितं पादाम्बुजं ते सुमन: फलार्हणम्। |
नमंत्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम्॥</poem><div style="text-align:right">(श्रीमद्भा.10।15।5)</div></ref>। दूसरी जगह वे इन वृक्षों के जीवन को मनुष्यों के लिये बड़ा ही उच्च आदर्श बतलाते है। <br /> | नमंत्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम्॥</poem><div style="text-align:right">(श्रीमद्भा.10।15।5)</div></ref>। दूसरी जगह वे इन वृक्षों के जीवन को मनुष्यों के लिये बड़ा ही उच्च आदर्श बतलाते है। <br /> | ||
श्री यमुना जी के साथ तो वे अपनी प्रेयसी के समान प्रेम करते थें। वन के पशु-पक्षी उनके क्रीडा-सहचर थें। वे और उनके साथी इन पशु-पक्षियों के साथ अनेक खेल खेलते थें। वे बन्दरों की दुम पकड़कर वृक्षों पर चढ़ जाते और उनकी तरह मुँह बनाकर खेलते थे। मेंढकों के साथ कूदते, कुँओं के अन्दर झाँककर उसमें दिखायी देने वाली अपनी परछाइयों की ओर मुँह बनाते थे। प्रतिध्वनि के साथ वार्तालाप करते, मोरों के साथ नाचते,बगुलों के साथ ध्यान लगाकर बैठते और भँवरो के साथ ताल दे-देकर गाते थे। उन्होंने अपनी गायों के अलग-अलग नाम रख छोडे़ थे और नाम लेकर पुकारते ही जो जहाँ भी होती, उनके पास दौडी चली आतीं थी। उनके लिये वे प्रसन्नतापूर्वक काँटो और कंकडों पर दौड़ा करते थे। यद्यपि उनकी प्यारी गोपियों को इसके विचार से ही दुःख होता था। एक बार जब भगवान ने बछडों का (बडी उम्र के बछडों का )रूप धारण किया तब गौएँ उनको देखकर पर्वत के शिखर से बाँध तुडाकर भागी। उनके थनों से दूध बहने लगा<ref><poem style="text-align:center">दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोअस्मृतात्मा सगोव्रजोअत्यात्मपदोर्गमार्ग:। | श्री यमुना जी के साथ तो वे अपनी प्रेयसी के समान प्रेम करते थें। वन के पशु-पक्षी उनके क्रीडा-सहचर थें। वे और उनके साथी इन पशु-पक्षियों के साथ अनेक खेल खेलते थें। वे बन्दरों की दुम पकड़कर वृक्षों पर चढ़ जाते और उनकी तरह मुँह बनाकर खेलते थे। मेंढकों के साथ कूदते, कुँओं के अन्दर झाँककर उसमें दिखायी देने वाली अपनी परछाइयों की ओर मुँह बनाते थे। प्रतिध्वनि के साथ वार्तालाप करते, मोरों के साथ नाचते,बगुलों के साथ ध्यान लगाकर बैठते और भँवरो के साथ ताल दे-देकर गाते थे। उन्होंने अपनी गायों के अलग-अलग नाम रख छोडे़ थे और नाम लेकर पुकारते ही जो जहाँ भी होती, उनके पास दौडी चली आतीं थी। उनके लिये वे प्रसन्नतापूर्वक काँटो और कंकडों पर दौड़ा करते थे। यद्यपि उनकी प्यारी गोपियों को इसके विचार से ही दुःख होता था। एक बार जब भगवान ने बछडों का (बडी उम्र के बछडों का )रूप धारण किया तब गौएँ उनको देखकर पर्वत के शिखर से बाँध तुडाकर भागी। उनके थनों से दूध बहने लगा<ref><poem style="text-align:center">दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोअस्मृतात्मा सगोव्रजोअत्यात्मपदोर्गमार्ग:। |
01:13, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
विषय सूची
श्रीकृष्णांक
प्रेम और सेवा के अवतार श्रीकृष्ण
उनको पर्वत, बालू तथा नदियों के सहवास में उतना ही आनन्द आता था जितना किसी चेतन प्रेमी के सहवास में। उनके प्रेम ने भगवान की दृष्टि में उन्हें देवताओं से भी ऊँचा बना दिया था। इसीलिये उन्होंने नन्द बाबा को देवराज इन्द्र की पूजा करने के लिये मना किया और कहा कि आप इस हमारे प्रिय मित्र गोवर्धन की और गौओं की पूजा कीजिये। कृष्णपरायण श्रीनन्द जी ने इस बात को स्वीकार किया और गोवर्धन की पूजा कि। इसका कारण यही था कि जो बात भगवान को रूचती थी। वही सबके मन भाती थी, क्योंकि वे ही अखिल प्रेम के आधार थें। कहीं मतभेद का नाम भी नहीं था, सर्वत्र एकता का साम्राज्य था। गोपियों ने भी उस पर्वत को सबका महान प्रेमी सेवक समझकर बडे़ प्रेम से उसी की पूजा की। वे वृक्षों को तो सेवा भाव की साक्षात मूर्ति समझकर सदा ही उनके प्रति श्रद्धा तथा प्रेम रखते थें। एक स्थल पर आप बलराम जी से कहते हैं भाई ! देखों ये वृक्ष किस प्रकार फूल और फलों से भार से झुक कर आपका स्वागत कर रहे है[1]। दूसरी जगह वे इन वृक्षों के जीवन को मनुष्यों के लिये बड़ा ही उच्च आदर्श बतलाते है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान श्रीबलरामजी से कहते हैं-
अहो अमी देववरामरार्चितं पादाम्बुजं ते सुमन: फलार्हणम्।
नमंत्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम्॥(श्रीमद्भा.10।15।5) - ↑
दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोअस्मृतात्मा सगोव्रजोअत्यात्मपदोर्गमार्ग:।
द्विपात्ककुद्ग्रीव उदास्यपुच्छोअगाद्धुं कृतैरास्रनुपया जवेन॥(श्रीमद्भा.10।13।30)