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<poem style="text-align:center;">'''ईश्वराणां वच: सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्।''' | <poem style="text-align:center;">'''ईश्वराणां वच: सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्।''' | ||
'''तेषा यत् स्ववचो युक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत्॥'''</poem> | '''तेषा यत् स्ववचो युक्तं बुद्धिमांस्तत् समाचरेत्॥'''</poem> | ||
− | अर्थात महापुरुषों के उपदेश सत्य होते हैं; बुद्धिमान मनुष्यों को उनका अनुसरण करना चाहिये। पर उनके कार्यों में से कुछ ही अनुकरणीय होते हैं। निस्सन्देह, श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिये धर्मसंस्थापनार्थाय अवतार लिया था और यह देखने के लिये कि कहाँ तक यह उद्देश्य इस जगह भी चरितार्थ होता | + | अर्थात महापुरुषों के उपदेश सत्य होते हैं; बुद्धिमान मनुष्यों को उनका अनुसरण करना चाहिये। पर उनके कार्यों में से कुछ ही अनुकरणीय होते हैं। निस्सन्देह, श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिये धर्मसंस्थापनार्थाय अवतार लिया था और यह देखने के लिये कि कहाँ तक यह उद्देश्य इस जगह भी चरितार्थ होता है, हमें भगवान के उस संवाद का संक्षेप में उल्लेख करना होगा जो रासलीला के ठीक पूर्व हुआ था। |
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[[चित्र:Next.png|right|link=कृष्णांक पृ. 317]] | [[चित्र:Next.png|right|link=कृष्णांक पृ. 317]] |
01:13, 24 मार्च 2018 का अवतरण
श्रीकृष्णांक
कृष्णस्तु भगवान स्वयम
अब, यदि हम रासलीला को ठीक तरह से समझना चाहते है तो हमें इस पर निष्पक्ष रूप से विचार करना होगा। यह बिलकुल स्पष्ट है कि श्रीमद्भागवत के तथा भक्त वैष्णवों के मतानुसार श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ जो लीला की, उसे करने की शास्त्र तथा समाज किसी दूसरे व्यक्ति के लिये कदापि आज्ञा नहीं देते। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि तब फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया ? अन्यान्य स्थलों की भाँति यहाँ भी उन्हें सुन्दर आदर्श उपस्थित करना चाहिये था। पर यह युक्ति भ्रममूलक हैं। वह मनुष्यों के सामने सुन्दर आदर्श उपस्थित करने के लिये अवतरित नहीं हुए थे; उनका अवतार तो भक्तों की अभिलाषाओं को पूर्ण करने के लिये था। सुन्दर आदर्श उपस्थित करने के लिये तो साधु महात्मा और ऋषि मुनि बहुत थे। श्रीकृष्ण तो अपनी माधुर्य लीला की मोहक शक्ति से कलियुग के निर्बल जीवों का उद्धार करने के लिये आये थे। इसके सिवा जिस कार्य को समर्थ पुरुष बेरोक टोक कर सकते है, उसका दूसरे लोग कदापि अनुकरण नहीं कर सकते हैं। महादेव ने कालकूट विष पी लिया था; पर यदि हमलोग भी वैसा करें तो तत्काल ही मृत्यु के ग्रास बन जायँ; तो भी इस बुरे आदर्श को उपस्थित करने के लिये महादेवजी को कोई अपराधी नहीं ठहरा सकता। प्रोफेसर राममूर्ति के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह अपनी छाती पर हाथी को चढ़ा लिया करते हैं, किन्तु यदि कोई मुर्ख इसकी नकल करना चाहे तो उसी क्षण चूर्ण होकर मर जायगा। रासलीला का अभिनय करने के अतिरिक्त भगवान ने गोवर्द्धन पर्वत को भी तो उठा लिया था और महाभारत का युद्ध भी तो करवाया था; किन्तु उनके अनुयायियों में से कोई भी उनकी एक भी लीला का अनुकरण नहीं कर सकता; क्योंकि उनमें इन कार्यों के करने के लिये पर्याप्त शक्ति ही नहीं है।’[1] ईश्वराणां वच: सत्यं तथैवाचरितं क्वचित्। अर्थात महापुरुषों के उपदेश सत्य होते हैं; बुद्धिमान मनुष्यों को उनका अनुसरण करना चाहिये। पर उनके कार्यों में से कुछ ही अनुकरणीय होते हैं। निस्सन्देह, श्रीकृष्ण ने धर्म की स्थापना के लिये धर्मसंस्थापनार्थाय अवतार लिया था और यह देखने के लिये कि कहाँ तक यह उद्देश्य इस जगह भी चरितार्थ होता है, हमें भगवान के उस संवाद का संक्षेप में उल्लेख करना होगा जो रासलीला के ठीक पूर्व हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ’भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला का वास्तविक स्वरूप क्या था, इस बात के यथार्थ मर्म को तो भगवान या उन के परम मर्मज्ञ भक्तजन ही जानते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भगवान की दृष्टि से उनकी कोई भी लीला दोषयुक्त नहीं है। तथापि भगवान श्रीकृष्ण की गीतोक्त लोक संग्रह की घोषणा को देखते हुए तो यही विश्राम होता है कि भगवान सर्वसमर्थ होने पर भी ऐसी कोई लीला नहीं करेंगे, जिसका अनुकरण करने से साधारण लोग पतित हो जायँ। वेदान्त का यह मर्म सत्य है कि ‘भगवान ही सबके आत्मा हैं’ परन्तु इस सत्य का कितना भयानक दुरुपयोग हुआ और हो रहा है, इस बात की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिये। भगवान के उदाहरण को सामने रखकर वेदान्त और ज्ञान की आड़ में हर कोई इन्द्रिय परायण मनुष्य यह कह सकता है कि ‘ब्रह्य के अतिरिक्त कहीं कोई पदार्थ नहीं है, हमें ब्रह्य का बोध है, हमारी किसी वस्तु में आसक्ति नहीं है, काम, क्रोध अन्तःकरण के विकार हैं, क्योंकि आत्मा तो सर्वथा निर्लेप और निर्विकार है ही, जब भगवान सब कुछ कर सकते हैं तब भगवान के साथ अपना अभेद समझने वाले पुरुष वैसा ही करें तो उसको क्यों दोष लगना चाहिये ? पवित्र रासलीला का मर्म न समझकर अब तक न मालूम कितने नर-नारी उसका अन्ध अनुकरण कर पतित हो चुके हैं, कितने दुराचारी लोग श्रीकृष्ण का वह लोकसंग्रह का महान आदर्श और कहाँ यह परिणाम में भयानक लोक- संहार ? जो कुछ भी हो, मैं अपने प्रेमी बन्धु श्रीकृष्ण का वह लोकसंग्रह का महान आदर्श और कहाँ यह परिणाम में भयानक लोक-संहार ? जो कुछ भी हो, मैं अपने प्रेमी बन्धु श्रीकृष्ण प्रेमजी के इन शब्दों पर पाठकों का ध्यान विशेष रूप से दिलाना चाहता हूँ कि ( भगवान् के सिवा ) दूसरे लोग (इस लीला का) अनुकरण कदापि नहीं कर सकते। महादेवजी ने कालकूट विष पी लिया था, (और उससे जगत का उपकार ही हुआ था) पर यदि हम लोग भी वैस ही करें तो तत्काल ही मृत्यु के ग्रास बन जायँ।’ भगवान की आज्ञा का पालन करना चाहिये, सारी लीलाओं का अनुकरण नहीं, क्योंकि जब हमारी बुद्धि उस लीला के रहस्य की तह तक पहुँच ही नहीं सकती, तब हम उसका अनुकरण कैसे कर सकते हैं।-सम्पादक