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श्रीकृष्णांक
प्रेम और सेवा के अवतार श्रीकृष्ण
उनको पर्वत, बालू तथा नदियों के सहवास में उतना ही आनन्द आता था जितना किसी चेतन प्रेमी के सहवास में। उनके प्रेम ने भगवान की दृष्टि में उन्हें देवताओं से भी ऊँचा बना दिया था। इसीलिये उन्होंने नन्द बाबा को देवराज इन्द्र की पूजा करने के लिये मना किया और कहा कि आप इस हमारे प्रिय मित्र गोवर्धन की और गौओं की पूजा कीजिये। कृष्णपरायण श्रीनन्द जी ने इस बात को स्वीकार किया और गोवर्धन की पूजा कि। इसका कारण यही था कि जो बात भगवान को रूचती थी। वही सबके मन भाती थी, क्योंकि वे ही अखिल प्रेम के आधार थें। कहीं मतभेद का नाम भी नहीं था, सर्वत्र एकता का साम्राज्य था। गोपियों ने भी उस पर्वत को सबका महान प्रेमी सेवक समझकर बडे़ प्रेम से उसी की पूजा की। वे वृक्षों को तो सेवा भाव की साक्षात मूर्ति समझकर सदा ही उनके प्रति श्रद्धा तथा प्रेम रखते थें। एक स्थल पर आप बलराम जी से कहते हैं भाई ! देखों ये वृक्ष किस प्रकार फूल और फलों से भार से झुक कर आपका स्वागत कर रहे है[1]। दूसरी जगह वे इन वृक्षों के जीवन को मनुष्यों के लिये बड़ा ही उच्च आदर्श बतलाते है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान श्रीबलरामजी से कहते हैं-
अहो अमी देववरामरार्चितं पादाम्बुजं ते सुमन: फलार्हणम्।
नमंत्युपादाय शिखाभिरात्मनस्तमोपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम्॥(श्रीमद्भा.10।15।5) - ↑
दृष्ट्वाथ तत्स्नेहवशोअस्मृतात्मा सगोव्रजोअत्यात्मपदोर्गमार्ग:।
द्विपात्ककुद्ग्रीव उदास्यपुच्छोअगाद्धुं कृतैरास्रनुपया जवेन॥(श्रीमद्भा.10।13।30)
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