भागवत सुधा -करपात्री महाराजदेवर्षि नारद के शब्दों में- यथा वैरानुबन्धेन मर्त्यस्तन्मयतामियात्। (युधिष्ठिर! मेरा तो ऐसा दृढ़ निश्चय है कि मनुष्य बैर-भार से भगवान में जितना तन्मय हो जाता है, उतना भक्तियोग से नहीं होता। भृंगी कीट को लाकर भीतर अपने छिद्र में बन्द कर देता है और वह भय तथा उद्वेग से भृंगी का चिन्तन करते करते उसके जैसा ही हो जाता है। यही बात भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में भी है। लीला द्वारा मनुष्य जैसे ज्ञात होते हुए भी ये सर्वशक्तिमान भगवान ही तो हैं। इनसे वैर करने वाले भी इनका चिन्तन करते-करते पापमुक्त होकर इन्हीं को प्राप्त हो गये। एक ही नहीं अनेक जीव, काम से, द्वेप से, भय से तथा स्नेह से अपने मन को भगवान में लगाकर सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर प्रभु को प्राप्त हुए हैं। जैसे भगवद भक्त भक्ति से प्राप्त हुए हैं। महाराज! गोपियों ने भगवान को पाने के लिए अपने मन को तीव्र काम-प्रेम से, कंस ने भय से, शिशुपाल, दन्तवक्त्रादि राजाओं ने द्वेष से, यादवों ने पारिवारिक सम्बन्ध से पाण्डवों ने स्नेह से और हम लोगों ने भक्ति से भगवान में मन लगया है। इन पाँच प्रकार से भगवान का चिन्तन करने वालों में राजा वेन की गणता तो किन्हीं में भी नहीं होती, उसने तो किसी भी प्रकार से भगवान में मन नहीं लगाया था। चाहे जैसे भी हो किसी भी तरह से अपना मन भगवान श्रीकृष्ण में तन्मय कर देना चाहिए।) आसीनः संविशंस्तिष्ठन् भुंजानः पर्यटन् महीम्। ( श्री हरि के प्रति वैर ठान कर - वैर की गाँठ बाँधकर कंस उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते सदा ही श्रीकृष्ण के चिन्तन में लगा रहता था। जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ आहट होती, वहाँ उसे श्रीकृष्ण ही दीख पड़ते। इस प्रकार उसे सारा जगत ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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