भागवत सुधा -करपात्री महाराजभगवान बोले-‘‘भाई जब तक हमसे नाता न जोडे़ं तब तक इनका उद्धार कैसे करूं?’’ उदयनाचार्य बोले- ‘‘आपने कंस का भी तो कल्याण किया? रावण, कुम्भकर्ण का भी तो कल्याण किया? हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु का भी कल्याण किया? भक्त का ही कल्याण करते हो, ऐसी बात तो नहीं?’’ भक्तिरसामृतसिन्धुकार की भक्ति का लक्षण है- अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम्। परन्तु मधुसूदन सरस्वती की भक्ति का यह लक्षण नहीं है। वे कहते हैं आनुकूल्येन हो अथवा प्रातिकूल्येन, किसी प्रकार से कृष्णानुस्मरण करो वह भी भक्ति है- द्रुतस्य भगवद्धर्माद्धारावाहिकतां गता। (भगवद्ध धर्म अर्थात भगवद गुण-श्रवणादि से द्रवीभूत हुए चित्त की सर्वेश्वर भगवान के विषय में धारावाहिक हुई- तैंल धारावत अविच्छन्न रूप से भगवदाकार हुई, वृत्ति ही भक्ति कही जाती है।।) द्रुते चित्ते प्रविष्टा या गोविन्दाकरता स्थिरा। (तैल धारावत अविच्छिन्न रूप से द्रवित हुए चित्त में स्थिर रूप से प्रविष्ट हुर्ह जो भगवदाकारता है, वही भक्ति है।) मद्गुणश्रुतिमात्रेण मयि सर्वगुहाशये। (जैसे गंगा का प्रबाह अखण्ड रूप से समुद्र की ओर बहता रहता है, वैसे ही मेरे गुणों के सुनने मात्र से ही मन की गति का तैलधारा की तरह अविच्छिन्न रूप से मुझ सर्वान्तर्यामी के प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में निष्काम एवं अनन्य प्रेम होना यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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