भागवत सुधा -करपात्री महाराजजीव से वेद की सृष्टि न हो, परन्तु सर्वज्ञ ईश्वर से तो वेद की सृष्टि हो ही सकती है? जीव अज्पक्ष है, अल्प शक्तिमान है। भ्रम, प्रमाद, करणापाटव दोष हो सकते हैं। परन्तु भगवान तो सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान हैं। भ्रम, प्रमाद करणापपाटवादि दोषों से रहित हैं। उनमें वेद की उत्पत्ति माने तो क्या हर्ज है? (स्वमत) परन्तु वेद भी कहता है, वेदज्ञ वाचस्पति मिश्र भी कहते हैं और तुलसीदास भी कहते हैं- ‘परमात्मा के सहज स्वाँस से श्रुतियाँ प्रकट होती हैं। सहज स्वाँस का मतलब यह है कि वेदों के निर्माण में भगवान् की बुद्धि नहीं खर्च हुई, प्रयत्न नहीं खर्च हुआ। बुद्धि, प्रयास खर्च होगा तो कह सकते हैं कि भगवान में भ्रम, प्रमाद, छल आदि दोषों में कुछ दोष हो भी सकते हैं। कहा जा सकता है कि वह पागल आदमी है जो कि भगवान में भ्रम, प्रमादादि कहता है। हम कहते हैं- हाँ भगवान में भ्रम, प्रमाद नहीं, परन्तु छल तो है, थोड़ा-सा ही सही। छल से भगवान ने बृन्दा का व्रत भंग किया- छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह। इसलिये कोई कह सकता है। कि वेदों के निर्माण में भगवान का छल होगा। उन्होंने मोहिनी रूप में छल किया। असुरों के हाथ से अमृत ले लिया। तो छल भगवान में भी सिद्ध होता है। परन्तु अपना कोई स्वार्थ न होने पर भी लोक कल्याण के लिए। अरे साँप को दूध पिलाओगे तो जहर ही तो बनेगा और क्या बनेगा? देवताओं को अमृत देना तो ठीक, परन्तु असुरों को अमृत दे देते वो वैसे ही वे प्रबल थे, फिर उनके मरने का तो कोई नाम ही नहीं। इस तरह जालंधर दैत्य का भयंकर। वह हजारों पतिब्रताओं का पातिव्रत्य भंग करने में लगा हुआ था। एक दिन भगवती पार्वती पर हमला किया। शंकर बन गया जी भूतभावन विश्वनाथ शंकर। पार्वती के पास चला। परन्तु भगवती के अनन्त सौन्दर्य को देखकर उसका तेज स्खलित हो गया। तो भगवती को मालूम हुआ यह तो दुष्ट है। तब भगवती ने विष्णु से कहा। भगवान विष्णु ने भगवती की प्रेरणा से वृन्दा व्रत टाला। वृन्दा का पातिब्रत्य जालन्धर का कवच बना हुआ था। वही उसे मारने नहीं देता था। विष्णु ने सोचा- कवच भंग करना चाहिए। इसलिए वेद के निर्माण में सुरकार्य के लिए छल करने वाले सुरनायक सर्वेश्वर भगवान के प्रयत्न और बुद्धि का भी उपयोग नहीं माना जाता। उनके सहज श्वाँस से ही वेदों का आविर्भाव माना जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (रामचरितमानस 1/123)
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