भागवत सुधा -करपात्री महाराजकई लोग कर्म जड़ होते हैं, ‘कर्म जड़’। ये लोग कर्मजड़ता में कहते हैं- ‘कर्म ही फल देगा, ईश्वर कोई नहीं।’ इसी तरह कई ज्ञान वाले कहते हैं- ‘काहे गुड्डा-गुड़िया की पूजा कर रहे हो? गुड्डा-गुड्डिी की पूजा से भला क्या होता है?’ परन्तु यह सब ज्ञान ऐसा है जैसे दाल में नोन ज्यादा डाल दिया, और दाल जहर हो जाय। इसलिए अनावश्यक ज्ञानाधिक्य नहीं। ज्ञान भी आवश्यक, कर्म भी, आवश्यक दोनों हों। परन्तु सभी भक्ति के आनुगुण्येन हों, प्रीति के आनुगुण्येन हों। कर्म का प्रयोजन है भगवदाराधन और स्वरूप है भगवदाराधनबुद्ध्या स्वकर्मानुष्ठान। ज्ञान का उपयोग है भगवत्स्वरूप का अनुभव। क्योंकि- जाने बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती । बिना जाने प्रीति नहीं होगी, इसलिए भक्त का भी कर्तव्य है कि आचार्य के पास गुरु के पास रहकर वैष्णव शास्त्र का अध्ययन करे। वृन्दावन में कोई ज्ञान-वैराग्य का ग्राहक था नहीं। इसलिए बेचारे जीर्ण-शीर्ण हो गये। नारद जी ने देखा- ये सब तीर्थ, नदियाँ भक्ति की सेवा करती हैं। यह मुक्ति है मुक्ति? जो भक्ति की सेवा में संलग्न हैं। भक्ति जहाँ स्मरण करती है, मुक्ति वहाँ आ जाती है। इस तरह यह सब बड़ी ऊँची सामग्री है। लेकिन भक्ति को शान्ति नहीं सुख नहीं। नारद जी महाराज ने बहुत जगह पूछा-पछोड़ा, परतन्तु कुछ पता नहीं चला। तो फिर तप करने लगे। फिर वहाँ दिव्यवाक्-दैवीवाक् हुई। व्योमवाणी तदैवाभून्मा ऋषे खिद्यतामिति । देवर्षें! खिन्न होने की आवश्यकता नहीं। आपका उद्यम सफल होगा इसके लिए सत्कर्म करें। संत लोग सत्कर्म बताएंगे।’’ और कठिन समस्या हो गई। भिन्न-भिन्न महात्माओं से मिले, सन्तों से मिले, पता नहीं लगा। अन्त में सनत्कुमार सनक सनातन सनन्दन मिले। बताया-‘‘भाई! तुम इसके लिए श्रीमद्भागवत सप्ताह सुनओ।’’ फिर नारद जी ने शंका किया-‘‘महाराज! हमने उनको गीता पाठ सुना दिया, वेद पाठ सुना दिया, उपनिषद् पाठ सुना दिया। वेद पाठ सुनने से जो मतलब नहीं निकला वह फिर भागवत-पाठ सुनाने से क्या निकलेगा? भागवत में भी जो कहा है, पद-पद पर गीता, वेद और उपनिषद् का ही तो सिद्धान्त है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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