भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 30

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

भूमिका

डा. विद्यानिवास मिश्र

ब्रह्मलीन स्वामी करपात्री जी इस युग के अप्रतिम विद्वान, साधक और भक्त थे। यह अत्यन्त दुःखद है कि उनके ग्रन्थों का समुचित प्रचार नहीं हुआ। एक तो कारण यह था कि वे निःस्पृह थे- लिखा, फेंक दिया, पूछा भी नहीं कि कब छप रहा है। ग्रन्थों की विक्री की आमदनी ट्रस्टों में गयी। दूसरा कारण यह था कि उनकी उपलब्धि का ठीक तरह मूल्यांकन नहीं हुआ। वेद- मीमांसा, दर्शन, तन्त्र वेदान्त-मीमांसा, समकालीन-राजनीति, भक्ति, उपासना और साहित्य विशेषतः भक्ति-साहित्य-इन सब विषयों पर उन्होंने संस्कृत और हिन्दी में ग्रन्थ लिखे। उनकी तार्किक शैली जितनी प्रखर और तीक्ष्ण है, उतनी ही सरस है उनकी भाव-प्रवण शैली। उनके व्यक्तित्व में एक ओर भास्वर तर्क-कर्कशता थी, निर्भीकता थी और बौद्धिकता का प्रबल आग्रह था, दूसरी ओर उसी व्यक्तित्व में भक्ति-विगलित भाव था, प्रेमानुगा भक्ति की तल्लीनता थी। इन दोनों में ऊपर से विरोध भले दिखता हो, दोनों का विलय परमहंस भाव में हो गया था। वे सनक, नारद, शुकदेव और शाण्डिल्य की परम्परा की एक कड़ी थे- बिल्कुल निरपेक्ष होते हुए भी निरन्तर परमतत्त्व के लिए साकांक्ष।
उनसे मेरी लगभग अन्तिम भेंट हुई तो उनके पार्श्ववर्ती शिष्य ने बतलाया- महाराज जी अब केवल रामचरितमानस और श्रीमद्भागवत पढ़वाकर सुनते हैं, इस समय चिकित्सकों ने पढ़ने से मना किया है। पहले कुछ दूसरी रचनाएँ भी, विशेष करके आस्तिक भाव का रचनात्मक साहित्य भी सुनते थे। अब यही दो ग्रन्थ सुनना चाहते हैं। मैंने स्वामी जी से पूछा- महाराज जी, ऐसा क्यों? बोले- जहाँ मुझे लगता है कि लिखने वाले ने कुछ अपेक्षा की है- चाहे वह अपेक्षा यश की ही क्यों न हो- वहाँ मेरी रुचि अब नहीं होती। श्रीमद्भागवत और रामचरितमानस लिखने वाले ने कोई अपेक्षा नहीं की, उनसे अपेक्षा अवश्य की गयी थी कि तुमने मेरा काम नहीं किया, तुमने लीलागान नहीं किया, तुम्हारी वाणी व्यर्थ है। इतना कहकर चुप हो गये। इसके बाद संकेत दिया, मानस से प्रसंग सुनने लगे और उनकी स्थिति हनुमान जी की तरह हो गयी, जब सीता का सन्देश प्रभु को सुना चुके, आँखों में आँसू, शरीर में रोमांच था। स्वामी जी के भक्तिपरक व्याख्यान जिन्हें सुनने का सौभाग्य मिला है, उन्हें अनुभव होगा कि कितना डूबकर वे बोलते थे, उन्हें सुधि नहीं रहती थी। उनकी विद्वत्ता, उनकी कठिन साधना और उनकी कारयित्री प्रतिभा, इन तीनों की त्रिवेणी जब भक्ति के प्रयाग में मिलती हैं तो उनका सबसे महत्त्वपूर्ण अवदान है ‘‘भक्ति-सुधा’’ और ‘‘ भागवत-सुधा’’।

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संबंधित लेख

भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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