भागवत सुधा -करपात्री महाराजभूमिका डा. विद्यानिवास मिश्र ब्रह्मलीन स्वामी करपात्री जी इस युग के अप्रतिम विद्वान, साधक और भक्त थे। यह अत्यन्त दुःखद है कि उनके ग्रन्थों का समुचित प्रचार नहीं हुआ। एक तो कारण यह था कि वे निःस्पृह थे- लिखा, फेंक दिया, पूछा भी नहीं कि कब छप रहा है। ग्रन्थों की विक्री की आमदनी ट्रस्टों में गयी। दूसरा कारण यह था कि उनकी उपलब्धि का ठीक तरह मूल्यांकन नहीं हुआ। वेद- मीमांसा, दर्शन, तन्त्र वेदान्त-मीमांसा, समकालीन-राजनीति, भक्ति, उपासना और साहित्य विशेषतः भक्ति-साहित्य-इन सब विषयों पर उन्होंने संस्कृत और हिन्दी में ग्रन्थ लिखे। उनकी तार्किक शैली जितनी प्रखर और तीक्ष्ण है, उतनी ही सरस है उनकी भाव-प्रवण शैली। उनके व्यक्तित्व में एक ओर भास्वर तर्क-कर्कशता थी, निर्भीकता थी और बौद्धिकता का प्रबल आग्रह था, दूसरी ओर उसी व्यक्तित्व में भक्ति-विगलित भाव था, प्रेमानुगा भक्ति की तल्लीनता थी। इन दोनों में ऊपर से विरोध भले दिखता हो, दोनों का विलय परमहंस भाव में हो गया था। वे सनक, नारद, शुकदेव और शाण्डिल्य की परम्परा की एक कड़ी थे- बिल्कुल निरपेक्ष होते हुए भी निरन्तर परमतत्त्व के लिए साकांक्ष। |
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