भागवत सुधा -करपात्री महाराजभागवत के प्रवचन से उठने के बाद जब श्री करपात्री जी महाराज, गंगा तट पर विरक्तों से मिलने के लिए जाने लगे, तब मैं भी उनके पीछे हो गया। उस समय वे संस्कृत में ही भाषण करते थे। मेरे प्रवचन की उन्होंने प्रशंसा की; शास्त्रानुकूल एवं संगत बताया। बाद में उन्होंने पूछा कि, सुना है, तुम श्रीकृष्ण लीला का बहुत बढ़िया वर्णन करते हो, तुम सिद्धान्तरूप से उसका निरूपण करते हो या परमत के रूप में। मैंने कहा-‘‘परमत के रूप में’’। उनके मुख से संस्कृत में शब्द निकला-‘‘त्वन्मुखे घृतशर्करा’’ अर्थात ‘तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर’। विरक्तों में उनकी ब्रह्मविद्या, दर्शन शास्त्र के पाण्डित्य एवं अद्भुत प्रतिभा की प्रतिष्ठा बढ़ रही थी। वे उस समय उदीयमान सूर्य के समान चमक रहे थे। उन्हीं दिनों गीताप्रेस के संस्थापक सेठ जयदयाल जी गोयन्दका, श्री ब्रह्मचारी जी के आमन्त्रण पर संकीर्तन-उत्सव में झूँसी आए हुए थे। वे श्री करपात्री जी महाराज से मिले। सेठ जी ने यह प्रश्न उठाया-‘‘ज्ञानी के जीवन में काम-क्रोधादि दोष रहते हैं अथवा नहीं’’। सेठ जी का कहना था कि ‘यदि तत्त्वज्ञानी के जीवन में ये विकार बने रहेंगे, तो दु:ख भी बना रहेगा। यदि तत्त्वज्ञान से दु:ख की निवृत्ति नहीं हुई तो कोई भी तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रयत्न क्यों करेगा?’ यह प्रश्न सेठ जी, इसके पहले कुम्भ मेला में आए हुए अन्य महापुरुषों से भी कर चुके थे। |
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