भागवत सुधा -करपात्री महाराजइसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे अपनी महा माया शक्ति को स्वीकार करते हैं, जो कि अनन्त शक्तियों का पुंज है। उसमें जिस प्रकार अनन्तकोटिब्रह्माण्ड और उसके अन्तर्वर्ती विचित्र भोग्य, भोक्ता और उनके नियामकादि प्रपञ्च को उत्पन्न करने की अनन्त शक्तियाँ हैं, उसी प्रकार उन अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के अधीश्वर श्री भगवान के दिव्य मंगलमय विग्रह में आविर्भूत होने के अनुकूल भी एक परम विशुद्धा अन्तरंग शक्ति है। वह भगवान की अनिर्वचनीया आत्मयोगभूता महाशक्ति के अन्तर्गत होने के कारण अनिर्वचनीयता में अन्य प्रपञ्चोंत्पादनानुकूल शक्तियों के समान होने पर भी उनकी अपेक्षा कहीं अधिक स्वच्छ है। इसी विलक्षण शक्ति का निर्देश पराशक्ति एवं अन्तरंगा शक्ति आदि शब्दों से भी किया जाता है। वह शक्ति भी भगवत्स्वरूप में अप्रविष्ट रहती हुई ही उनके प्राकट्य का निमित्त होती है। जिस प्रकार उपाधि विरहित, अतएव दाहकत्व-प्रकाशकत्व रहित अग्नि के दाहकत्व-प्राकशकत्व विशिष्टि दीप-शिखादि रूप की अभिव्यक्ति में तेल और बत्ती आदि केवल निमित्त मात्र ही हैं, मुख्य अग्नि तो दीप-शिखा ही है; अथवा जिस प्रकार तरंग विरहित नीरनिधि के तरंगयुक्त होने में वायु केवल निमित्त मात्र ही है, वास्तव में तो तरंगयुक्त समुद्र विलक्षणावस्था में प्रतीत होने पर भी सर्वथा वही है जो कि निस्तरंगावस्था में था, ठीक उसी प्रकार विशुद्ध लीलाशक्ति रूप निमित्त से शुद्ध परब्रह्म ही अनन्त कल्याण गुणगण विशिष्ट सगुण ब्रह्म के रूप में अभिव्यक्त हैं, किन्तु वस्तुतः उनका वह विग्रह मूर्तिमान शुद्ध परमानन्द ही है। |
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