भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 25

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

क्रमेण इसी तरह बढ़ते-बढ़ते भगवद्गुणादि सर्वापेक्षया सत्य, उत्कृष्ट, अवाध्य एवं अधिक सत्ता वाली होती हैं। 'मां भजंति गुणाः सर्वे’ के अनुसार गुणगण शेष हैं और भगवान शेषी। सर्वान्तरम भगवत-स्वरूप उनकी अपेक्षा भी अधिक उत्कृष्ट सत्य एवं अत्यन्ताबाध्य होता है। इस तरह भगवत्स्वरूपापेक्षया गुणादि के किन्चिन्यून सत्ता वाला होने पर भी कोई बाधा नहीं। स्वसमान सत्तावाले किसी अन्य के सिद्ध न होने के कारण भगवान की अद्वितीयता सिद्ध है। अचिन्त्य आनन्द-सुधा सिन्धु भगवान के जिस माधुर्य का समास्वादन केवल वृत्तिशून्य अन्तःकमरण से नहीं किया जा सकता, उसका भी तत्त्वज्ञ भावुकगण भगवान की दिव्य लीलाशक्ति की सहायता से अनुभव करते हैं। उपाधिविशुद्धि के तारतम्य से माधुर्य-विशेष के प्राकट्य का भी तारतम्य रहता है। यद्यपि और इन्द्रियों (करणों) की अपेक्षा तो शुद्ध निर्वृत्तिक अन्तःकरण की स्वच्छता विशेष है तथापि भगवान की जो लीला शक्ति है, वह उसकी अपेक्षा भी अनन्तगुणित स्वच्छ है। वह रजोगुण तमोगुण के स्पर्श से रहित है। वही अशेष-विशेषातीत परमानन्दात्मक शुद्ध स्वरूप को अचिन्त्य एवं अनन्त आनन्दमय सौन्दर्य सुधानिधि परमदिव्य श्रीकृष्ण- विग्रह में अभिव्यक्त कर देती है। जिस प्रकार पुष्प के बीज में कण्टकादि उत्पन्न करने वाली शक्तियों की अपेक्षा सुकोमल एवं सुगन्धित पुष्प उत्पन्न करने वाली शक्ति अत्यन्त उत्कृष्ट और विशुद्ध होती है, उसी प्रकार प्रपंचोत्पादिनी शक्तियों की अपेक्षा भगवान की मंगलमयी मूर्ति का स्फुरण करने वाली शक्ति परम विलक्षम होनी ही चाहिये। उसी के द्वारा भगवान अचिन्त्य सौन्दर्य-माधुर्य-सुधानिधि मंगलमूर्ति धारण करते हैं।
वह देह सोपाधिक चेतन का कार्य होने पर भी प्राकृतिक कार्यों से विलक्षण होता है। तामस, राजस देहों की अपेक्षा विशुद्ध सत्त्वमय शरीरों में विशेषता रहती ही है। तामसी या अविशुद्ध सत्त्वप्रधान प्रकृति से चैतन्य आवृत होता है; परन्तु विशुद्ध सत्त्वप्रधान प्रवृति, माया या दिव्य शक्ति से निरावरण ही रहता है। सूर्य मेघ से आवृत हो जाता है, परंतु नेत्र और सूर्य के मध्य में दूरवीक्षण यंत्र होने से वह आवृत नहीं होता। जैसे स्पर्श विहीन आकाश स्पर्शवान वायु के रूप में प्रकट होकर भी अपने आकाश रूप में बना ही रहता है, वैसे ही अनेक रूपों में प्रकट होकर भी परमात्मा अपने निर्गुण-निराकार रूप में बने ही रहते हैं। समान सत्ता वाले भावाभाव का ही विरोध होता है, विषम सत्ता वाले भावाभाव का नहीं, अतएव पारमार्थिक सत्तापेक्षया किन्चन्यून-सत्ताकत्व ही उस दिव्य शक्ति का व्यावहारिकत्व है, जिसके योग से अवतार सम्भव है। तथा च ब्रह्म में पारमार्थिक-दृष्टि से अजायमानता रहने पर भी व्यावहारिक-दृष्टि से जायमानता हो सकती है। श्रीराम- कृष्णादि भगवान् की प्रथम अद्वैत-निष्ठा योग्यता प्राप्ति के लिये भक्ति की जाती है, परन्तु अन्त में भक्ति करना ज्ञानी का स्वभाव बन जाता है। यही बात ‘त्रिपुरा-रहस्य’ में कही गयी है- विभेदभावमाहत्य सेव्यतेअत्यन्ततत्परैः’, परम आप्तकाम, पूर्णकाम ज्ञानी फलानुसन्धान विना ही स्वभाव से ही भगवान में प्रेम करते हैं’। शुक के सम्बन्ध में कहा ही गया है- ‘परिनिष्ठितोअपि नैर्गुण्ये’, निर्गुण ब्रह्म में परिनिष्ठित होने पर भी हरि-गुणों से आकृष्ट होकर ही भागवत के अभ्यास में संलग्न हुये’। कुन्ती ने तो यहाँ तक कह डाला कि अमलात्मा-परमंहस-महामुनीन्द्रों को भक्तियोग का विधान कर श्री परमहंस बनाने के लिये निर्गुण-निराकार परब्रह्म सगुण-साकार रूप में प्रकट होते हैं- ‘तथा परमहंसानाम्’। भगवान के अवतार का प्रधान प्रयोजन अमलात्मा परमहंसों के लिये भक्तियोग का विधान है।

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संबंधित लेख

भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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