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भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमेण इसी तरह बढ़ते-बढ़ते भगवद्गुणादि सर्वापेक्षया सत्य, उत्कृष्ट, अवाध्य एवं अधिक सत्ता वाली होती हैं। 'मां भजंति गुणाः सर्वे’ के अनुसार गुणगण शेष हैं और भगवान शेषी। सर्वान्तरम भगवत-स्वरूप उनकी अपेक्षा भी अधिक उत्कृष्ट सत्य एवं अत्यन्ताबाध्य होता है। इस तरह भगवत्स्वरूपापेक्षया गुणादि के किन्चिन्यून सत्ता वाला होने पर भी कोई बाधा नहीं। स्वसमान सत्तावाले किसी अन्य के सिद्ध न होने के कारण भगवान की अद्वितीयता सिद्ध है।
अचिन्त्य आनन्द-सुधा सिन्धु भगवान के जिस माधुर्य का समास्वादन केवल वृत्तिशून्य अन्तःकमरण से नहीं किया जा सकता, उसका भी तत्त्वज्ञ भावुकगण भगवान की दिव्य लीलाशक्ति की सहायता से अनुभव करते हैं। उपाधिविशुद्धि के तारतम्य से माधुर्य-विशेष के प्राकट्य का भी तारतम्य रहता है। यद्यपि और इन्द्रियों (करणों) की अपेक्षा तो शुद्ध निर्वृत्तिक अन्तःकरण की स्वच्छता विशेष है तथापि भगवान की जो लीला शक्ति है, वह उसकी अपेक्षा भी अनन्तगुणित स्वच्छ है। वह रजोगुण तमोगुण के स्पर्श से रहित है। वही अशेष-विशेषातीत परमानन्दात्मक शुद्ध स्वरूप को अचिन्त्य एवं अनन्त आनन्दमय सौन्दर्य सुधानिधि परमदिव्य श्रीकृष्ण- विग्रह में अभिव्यक्त कर देती है। जिस प्रकार पुष्प के बीज में कण्टकादि उत्पन्न करने वाली शक्तियों की अपेक्षा सुकोमल एवं सुगन्धित पुष्प उत्पन्न करने वाली शक्ति अत्यन्त उत्कृष्ट और विशुद्ध होती है, उसी प्रकार प्रपंचोत्पादिनी शक्तियों की अपेक्षा भगवान की मंगलमयी मूर्ति का स्फुरण करने वाली शक्ति परम विलक्षम होनी ही चाहिये। उसी के द्वारा भगवान अचिन्त्य सौन्दर्य-माधुर्य-सुधानिधि मंगलमूर्ति धारण करते हैं।
वह देह सोपाधिक चेतन का कार्य होने पर भी प्राकृतिक कार्यों से विलक्षण होता है। तामस, राजस देहों की अपेक्षा विशुद्ध सत्त्वमय शरीरों में विशेषता रहती ही है। तामसी या अविशुद्ध सत्त्वप्रधान प्रकृति से चैतन्य आवृत होता है; परन्तु विशुद्ध सत्त्वप्रधान प्रवृति, माया या दिव्य शक्ति से निरावरण ही रहता है। सूर्य मेघ से आवृत हो जाता है, परंतु नेत्र और सूर्य के मध्य में दूरवीक्षण यंत्र होने से वह आवृत नहीं होता। जैसे स्पर्श विहीन आकाश स्पर्शवान वायु के रूप में प्रकट होकर भी अपने आकाश रूप में बना ही रहता है, वैसे ही अनेक रूपों में प्रकट होकर भी परमात्मा अपने निर्गुण-निराकार रूप में बने ही रहते हैं। समान सत्ता वाले भावाभाव का ही विरोध होता है, विषम सत्ता वाले भावाभाव का नहीं, अतएव पारमार्थिक सत्तापेक्षया किन्चन्यून-सत्ताकत्व ही उस दिव्य शक्ति का व्यावहारिकत्व है, जिसके योग से अवतार सम्भव है। तथा च ब्रह्म में पारमार्थिक-दृष्टि से अजायमानता रहने पर भी व्यावहारिक-दृष्टि से जायमानता हो सकती है। श्रीराम- कृष्णादि भगवान् की प्रथम अद्वैत-निष्ठा योग्यता प्राप्ति के लिये भक्ति की जाती है, परन्तु अन्त में भक्ति करना ज्ञानी का स्वभाव बन जाता है। यही बात ‘त्रिपुरा-रहस्य’ में कही गयी है- विभेदभावमाहत्य सेव्यतेअत्यन्ततत्परैः’, परम आप्तकाम, पूर्णकाम ज्ञानी फलानुसन्धान विना ही स्वभाव से ही भगवान में प्रेम करते हैं’। शुक के सम्बन्ध में कहा ही गया है- ‘परिनिष्ठितोअपि नैर्गुण्ये’, निर्गुण ब्रह्म में परिनिष्ठित होने पर भी हरि-गुणों से आकृष्ट होकर ही भागवत के अभ्यास में संलग्न हुये’। कुन्ती ने तो यहाँ तक कह डाला कि अमलात्मा-परमंहस-महामुनीन्द्रों को भक्तियोग का विधान कर श्री परमहंस बनाने के लिये निर्गुण-निराकार परब्रह्म सगुण-साकार रूप में प्रकट होते हैं- ‘तथा परमहंसानाम्’। भगवान के अवतार का प्रधान प्रयोजन अमलात्मा परमहंसों के लिये भक्तियोग का विधान है।
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