भागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प इसी तरह अनन्त ब्रह्माण्डान्तर्गत आनन्द बिन्दु उद्गम स्थान अचिन्त्य, अनन्त, परमानन्द धन ब्रह्म ही अद्भुत समय है, फिर उसके फलस्वरूप माधुर्य मंगलस्वरूप में कितना चमत्कार हो सकता है, यह सहृदय ही जान सकते हैं, इक्षु रस का सार शर्करा, सिता आदि का भी सार जैसे कन्द होता है, वैसे ही औपनिषद परब्रह्म रस सार भगवान का मधुर मनोहर सगुण स्वरूप है। श्रृणु सखि कौतुकमेकं नन्दनिकेतांगणे मया दृष्टम्। अर्थात् कुछ महानुभाव निगमाटवो के ब्रह्मतत्त्वान्वेषकों के परिश्रम पर दयार्द्र होकर, उनके अन्वेष्टव्य ब्रह्म को श्रीयशोदा के उलूखल में बंधा बतला रहे हैं, तो कुछ श्रीमत्रन्द के प्रांगण में धूसरित वेदान्त सिद्धान्त के नृत्य का कौतुक बता रहे हैं, परम कौतुकी प्रभु में यह कौतुक ही तो है? इतने पर भी लोगों के प्रश्न होते हैं कि निराकार भगवान साकार कैसे हो सकता है? परन्तु इस ओर उनका ध्यान नहीं जाता कि जब कौतुकी कृपालु की लीला से निराकार जीव साकार होता है जबकि सर्वमत से जीव निराकार है, स्पर्शयुक्त वायु के रूप में अवतीर्ण होता है, रूपरहित वायु रूपवान तेज के रूप में, रस गन्ध विहीन तेज रसायुक्त जल के रूप में और गन्धहीन जल गन्धवती पृथ्वी के रूप में प्रादुर्भूत होता है तब क्या वह प्रभु निराकार होकर भी साकर रूप में नहीं प्रकट हो सकते? ज्ञानी के निर्वृत्तिक मन पर अविषयक रूप से प्रकट वही वेदान्त वेद्य सच्चिदानन्द घन भगवान अनन्त कोटि कन्दर्प के दर्प को दूर करने वाले, दिव्य सौन्दर्य माधुर्यसुधाजलनिधि, मधुरातिमधुर स्वरूप से प्रकट होकर, अपने स्नेह द्वारा भावुक के द्रवीभूत अन्तःकरण को अपने रंग में रंग देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज