भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 247

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

अष्टम-पुष्प

उस समय श्रीकृष्ण अतिशय सुगन्धित स्नेह के द्वारा मानो लिप्त हैं, अपने शरीर की स्वाभाविक सुगन्ध के द्वारा मानो उनका उबटन हो गया है; मानो माधुर्यरस के द्वारा उनका स्नान हो गया है; लोकोत्तर निजी लावण्य के द्वारा मानो उनका अंगप्रोक्षण हो गया है; चन्दन आदि की तरह निजी सौन्दर्य से ही मानो उनका अनुलेपन हो गया है; एवं तीनों लोकों की शोभा के द्वारा वे विभूषित हैं एवं सूतिगृह की प्रदीप कलिकाओं के समान चम्पा के पुष्पों के द्वारा भवन की अधिष्ठात्री देवी ने मानो उनका पूजन कर दिया है एवं वे अपने छोटे-छोटे हस्तपादादि अंगरूप पल्लवों के स्वाभाविक तेज के द्वारा सूतिकागृह की दीपक श्रेणी को मानो कमल की कलिकाओं के समान बना रहे हैं एवं मानो वे इन्द्रमणि के अंकुर हैं, मानो तमाल के पल्लव हैं, मानो नूतन जलधर के अंकर हैं मानों त्रैलोक्य लक्ष्मी के कस्तूरी के तिलक हैं, मानो सौभाग्यरूप सम्पत्ति के सिद्धांजन हैं एवं अरिष्टको अर्थात सूतिका गृह को सरस बनाने वाले होकर भी समस्त अरष्टि-अशुभ के शामक हैं, बालक होकर भी नवीन अलवलियों से युक्त हैं तथा कोमल एवं अत्यन्त मधुर अपनी अंगुलियों के द्वारा भगवत्ता के द्योतक, मत्स्य अंकुशादि चिह्नों को छिपाने के लिये ही मानो करकमल रूप कलिका की मुट्ठी बना रहे हैं एवं वे नेत्र मूंदकर ऊपर की ओर मुख करके सीधे शयन कर रहे हैं उनकी ब्रजांगनाओं ने इस प्रकार देखा।)

निर्मितं किल मृगमदसौरभतमालदलसारेण,
अभ्यक्तं किल निखिलविलम्बकलावर्ण्येन,
उद्वत्तितं किल निजदेहतेजसा, स्नातं किल
निजमुखनिर्यत्कान्तिसुधया, अनुलिप्तं किल
जननीदृष्टिकर्पूरलब्धसंघृष्टिभद्रश्चिया,
भूषितं किल सहजशुभतारूषित ‘निजाकारेण’[1]

यह बालक, मानो कस्तूरी की सुगन्ध से पूर्ण तमालदल के सार द्वारा गठित हुआ है, जिसके द्वारा समस्त चित्त-धर्म व देह-धर्म विगलित हुए जा रहें हैं उस लावण्य द्वारा ही मानो यह श्रीविग्रह रचित है। अपनी देहकान्ति के कारण झलमला रहा है, अपने मुखचन्द्र से स्त्रवित कान्ति-सुधा में स्नान किये हुए है, माता की दृष्टि रूप कर्पूर युक्त संघर्षित चन्दन से मानो अनुलिप्त है, स्वाभाविक चन्दन गंघित व मंगलमय अपने विग्रह द्वारा ही मानो अलंकृत हो रहा है।।)
भगवान का श्रृंगार तो कहो जरा। ‘उद्वतितमिव सौरभ्येण’ अन्यत्र तो तो उबटन से सौरभ्य आता है। मंगलय अंग में उबटन लगाओ तो सौरभ्य आता है। पर यहाँ तो सौरभ्यसारसर्वस्व से ही उबटन किया गया है। उबटन का मसाला ही सौरभ्यसारसर्वस्व है। उबटन के बाद अभ्यंग होता है। यहाँ अभ्यंग किसका? ‘अभ्यक्तमिव सुरभितमस्नेहेन’ राधारानी वृषभानु नन्दिनी का जो प्राणधन प्रियतम विषयक स्नेह है, उसी से अभ्यंग हुआ है।’

‘स्नातमिव माधुर्येण’ माधुर्यसारसर्वस्व से स्नान कराया गया है। साथ ही श्री भगवान के अंग का जो महः- तेज है, मानो उसी से स्नान कराया गया है। माने भगवान के रोम-रोम में सौन्दर्यामृत सिन्धु है, रोम-रोम में माधुर्यामृत सिन्धु है। भगवान के श्रीअंग से समुद्भूत जो अनन्तानन्द सौन्दर्यसारसिन्धु, माधुर्यसारसिन्धु, सौगन्ध्यसारसिन्धु इसी से भगवान का आवगाहन स्नान कराया गया है। उसके बाद मार्जन चाहिये तो ‘मार्जितमिव लावण्येन’ अन्यत्र तो मार्जन से लावण्य आता है? परन्तु यहाँ तो लावण्य से ही मार्जन किया गया है। ‘अनुलिप्तमिव सौन्दर्येण’ सौन्दर्यसारसर्वस्व से ही श्री अंग का अनुलेपन किया गया है। ‘विभूषितमिव त्रैलोक्यलक्ष्म्या’ त्रैलोक्य लक्ष्मी के द्वारा आपको भूषित अलंकत-सुशोभित किया गया है। इस तरह से भगवान के दिव्य मंगलमय स्वरूप का प्राकट्य हुआ है। नन्दरानी ने भगवान का दर्शन किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गोपाल चम्पूः 3.149

संबंधित लेख

भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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