भागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प उस समय श्रीकृष्ण अतिशय सुगन्धित स्नेह के द्वारा मानो लिप्त हैं, अपने शरीर की स्वाभाविक सुगन्ध के द्वारा मानो उनका उबटन हो गया है; मानो माधुर्यरस के द्वारा उनका स्नान हो गया है; लोकोत्तर निजी लावण्य के द्वारा मानो उनका अंगप्रोक्षण हो गया है; चन्दन आदि की तरह निजी सौन्दर्य से ही मानो उनका अनुलेपन हो गया है; एवं तीनों लोकों की शोभा के द्वारा वे विभूषित हैं एवं सूतिगृह की प्रदीप कलिकाओं के समान चम्पा के पुष्पों के द्वारा भवन की अधिष्ठात्री देवी ने मानो उनका पूजन कर दिया है एवं वे अपने छोटे-छोटे हस्तपादादि अंगरूप पल्लवों के स्वाभाविक तेज के द्वारा सूतिकागृह की दीपक श्रेणी को मानो कमल की कलिकाओं के समान बना रहे हैं एवं मानो वे इन्द्रमणि के अंकुर हैं, मानो तमाल के पल्लव हैं, मानो नूतन जलधर के अंकर हैं मानों त्रैलोक्य लक्ष्मी के कस्तूरी के तिलक हैं, मानो सौभाग्यरूप सम्पत्ति के सिद्धांजन हैं एवं अरिष्टको अर्थात सूतिका गृह को सरस बनाने वाले होकर भी समस्त अरष्टि-अशुभ के शामक हैं, बालक होकर भी नवीन अलवलियों से युक्त हैं तथा कोमल एवं अत्यन्त मधुर अपनी अंगुलियों के द्वारा भगवत्ता के द्योतक, मत्स्य अंकुशादि चिह्नों को छिपाने के लिये ही मानो करकमल रूप कलिका की मुट्ठी बना रहे हैं एवं वे नेत्र मूंदकर ऊपर की ओर मुख करके सीधे शयन कर रहे हैं उनकी ब्रजांगनाओं ने इस प्रकार देखा।) निर्मितं किल मृगमदसौरभतमालदलसारेण, यह बालक, मानो कस्तूरी की सुगन्ध से पूर्ण तमालदल के सार द्वारा गठित हुआ है, जिसके द्वारा समस्त चित्त-धर्म व देह-धर्म विगलित हुए जा रहें हैं उस लावण्य द्वारा ही मानो यह श्रीविग्रह रचित है। अपनी देहकान्ति के कारण झलमला रहा है, अपने मुखचन्द्र से स्त्रवित कान्ति-सुधा में स्नान किये हुए है, माता की दृष्टि रूप कर्पूर युक्त संघर्षित चन्दन से मानो अनुलिप्त है, स्वाभाविक चन्दन गंघित व मंगलमय अपने विग्रह द्वारा ही मानो अलंकृत हो रहा है।।) ‘स्नातमिव माधुर्येण’ माधुर्यसारसर्वस्व से स्नान कराया गया है। साथ ही श्री भगवान के अंग का जो महः- तेज है, मानो उसी से स्नान कराया गया है। माने भगवान के रोम-रोम में सौन्दर्यामृत सिन्धु है, रोम-रोम में माधुर्यामृत सिन्धु है। भगवान के श्रीअंग से समुद्भूत जो अनन्तानन्द सौन्दर्यसारसिन्धु, माधुर्यसारसिन्धु, सौगन्ध्यसारसिन्धु इसी से भगवान का आवगाहन स्नान कराया गया है। उसके बाद मार्जन चाहिये तो ‘मार्जितमिव लावण्येन’ अन्यत्र तो मार्जन से लावण्य आता है? परन्तु यहाँ तो लावण्य से ही मार्जन किया गया है। ‘अनुलिप्तमिव सौन्दर्येण’ सौन्दर्यसारसर्वस्व से ही श्री अंग का अनुलेपन किया गया है। ‘विभूषितमिव त्रैलोक्यलक्ष्म्या’ त्रैलोक्य लक्ष्मी के द्वारा आपको भूषित अलंकत-सुशोभित किया गया है। इस तरह से भगवान के दिव्य मंगलमय स्वरूप का प्राकट्य हुआ है। नन्दरानी ने भगवान का दर्शन किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गोपाल चम्पूः 3.149
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