भागवत सुधा -करपात्री महाराजअष्टम-पुष्प (वे त्रिकालाबाधित सत्य हैं, स्वयं प्रकाश और आन्तानन्द स्वरूप हैं। उनमें जड़ता और चेतनता का भेदभाव नहीं है। वे सबके-सब एक रस हैं। यहाँ तक कि उपनिषद्दर्शी तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि भी उनकी अनन्त महिमा का स्पर्श नहीं कर सकती।) लोक में यह देखा जाता है कि गाह्य-ग्राहक-भावों कें सामाज्य रहा करता है। तैजस नेत्र से तैजस रूप का ज्ञान होता है तथा आकाशीय श्रोत्र से ही आकाशीय शब्द का ज्ञान होता है। मन पाँचों भूतों के सात्त्विक अंश का कार्य है, इसीलिए उससे पाँचों भूतों के गुणों का ग्रहण हो सकता है। इसी प्रकार यहाँ भी देखना चाहिये। भगवान प्राकृत हैं या अप्राकृत? वे तो सत्यज्ञानानन्तानन्दमूर्ति ही हैं। उनके महान माहात्मय को समझने में तो वेदान्तविद भी असमर्थ हैं। उनमें प्राकृत भाव का लेश भी नहीं है। दीपकलिका क्या है? वह शुद्ध अग्नि मात्र ही तो है। जिस प्रकार बत्ती और तैल को निमित्त बनाकर अग्नि ही दाहकत्व-प्रकाशकत्व विशिष्ट रूप में परिणत हुआ करता है, उसी प्रकार परमान्तरगं अचिन्त्य-दिव्यातिदिव्य लीला-शक्ति को ही निमित्त बनाकर वह शुद्ध परमानन्दघन परब्रह्म ही भगवान श्रीकृष्ण रूप में प्रकट होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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