भागवत सुधा -करपात्री महाराज पृ. 229

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भागवत सुधा -करपात्री महाराज

सप्तम-पुरुष

4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष?

श्रीशुक्राचार्य के लाख समझाने पर भी सत्य का त्याग नहीं किया। शुक्राचार्य महाराज नाराज हो गये। शाप दे दिया। पर बलि ने दान कर दिया। फिर क्या बात थी। भगवान ने बलि का दो पग में सब कुछ ले लिया। तृतीय पग का दान बाकी रहा। भगवान बोले- ‘तुमने तीन पग का दान दिया था न? दो पग में मैंने तेरा सब कुछ ले लिया। एक पग तो बाकी ही रहा।’ भगवान के पार्षदों ने वारुण-पाश में राजा बलि को बाँध दिया। राजा बलि के भक्त-सेवक युद्ध करने को उद्यत हुए। विष्णु के महान पार्षदों ने सब को खदेड़ कर भगा दिया। बलि ने समझाया- ‘भाई इस समय युद्ध का काल नहीं है। काल भगवान हमारे प्रतिकूल हैं। इस समय युद्ध मत करो। जो लोग कभी सामने खड़े नहीं होते थे वे ही आज सामने हैं। जोरों से निनाद कर रहे हैं। कोई बात नहीं।’ यह सब प्रपंच चलता रहा। ब्रह्मा जी आये, बोलना चाहते थे। इतने में विन्ध्यावली जो बलि की पत्नी थी, वह बोल पड़ी--

क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत् कृतं ते
स्वाम्यं तु तत्र कुधियोअपर ईश कुर्युः।
कर्तुः प्रभोस्तव किमस्यत आवहन्ति
त्यक्तह्नियस्त्वदवरोपितकर्तृवादाः।।[1]

अर्थात भगवन! आपने अनन्त ब्रह्मण्डात्मक आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक प्रपंच अपने क्रीडा के लिये बनाया है- खेल खेलने के लिये खिलौना बनाया है। दुर्बुद्धि ही आपके बनाये खिलौने को अपना मान लेते हैं। यह स्वर्गलोक हमारा, यह धरती हमारी, यह नन्दन वन हमारा ऐसा मानकर गड़बड़ करते हैं। प्रभो कर्तृत्व भी आपके अनुग्रह से ही होता है। अधिष्ठान बिना कर्ता कहाँ से आया? कर्तृत्व का आरोप किसी अधिष्ठान में होगा। ब्रह्मा जी ने कहा-

भूतभावन! देवदेव! जगन्मय!
मुंचैनं हृतसर्वस्वं भूर्लोकाः कर्माजिताश्च ये।
निवेदितं च सर्वस्वमात्मविक्लवया धिया।।
यत्पादयोरशठधीः सलिलं प्रदाय
दूर्वाकुंरैरपि विधाय सतीं सपर्याम्।
अप्युत्तमां गतिमसौ भजने त्रिलोकीं
दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत्।।[2]

(आप समस्त प्राणियों के जीवन दाता हैं, स्वामी हैं, जगत् के रूप में भी आप ही अभिव्यक्त हैं, देवों के भी देव आप ही हैं। इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अतः अब यह दण्ड का पात्र नहीं है। इसने अपना सम्पूर्ण भू-लोक आपको समर्पित कर दिया है। पुण्य कर्मों से उपार्जित स्वर्गादि लोक अपना सर्वस्व और आत्मा तक आपकी समर्पित कर दिया है। साथ ही ऐसा करते समय यह धैर्य से च्युत बिलकुल नहीं हुआ है। प्रभो! जो मनुष्य सच्चे हृदय से कृपणता को छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्ध्य देता है और केवल दूर्वादलों से भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम गति की प्राप्ति होती है। फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया है। तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है?)

तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलकेन वा।
विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सलः।।

[3]

अर्थात् भगवान् ऐसे दयालु हैं कि वे भक्ति से दिये हुए चुल्लू जल तथा एक तुलसी के पत्र द्वारा ही अपनी आत्मा को भक्तों के लिये दे देते हैं। आपके मंगलमय चरणों में जो तुलसीदास, दूर्वादल गंगाजल अर्पण करते हैं, वे आपको खरीद लेते हैं। इतने तो अपना सर्वस्व ही आपके श्रीचरणों मं अर्पित कर दिया है। यह सब क्रम चल रहा था। भगवान ने बलि से कहा- ‘हमारा तीन पग पूरा नहीं हुआ।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत 8.22.20
  2. भागवत 8.22.21-23
  3. गौतमीय तन्त्र

संबंधित लेख

भागवत सुधा -करपात्री महाराज
क्रमांक पाठ का नाम पृष्ठ संख्या
प्रथम-पुष्प
1. निगमकल्परोर्गलितं फलम् 37
2. पुरुषार्थचतुष्टयप्रदायक निगमकल्पतरु 38
3. रसमालयम् 38
4. आत्माराम का भी भगवद्गुणगणार्णव में अवगाहन 38
5. देव दुर्लभ श्रीमद्भागवत: 39
6. युगधर्मों का निरूपण 42
7. विद्या-अविद्या का समुच्चय 44
8. भगवन्नाम-संकीर्तन 48
9. माहात्म्य 51
10. वस्तु-तत्व के साक्षात्कार के लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन अपेक्षित 54
11. ‘जन्माद्यस्य यतोऽन्वयात्’ की भूमिका 54
12. भगवत्तत्व का अनुसंधान- छान्दोग्य शैली में 55
13. भगवतत्व का अनुसंधान -तैत्तिरीय शैली में 56
14. पैंगलोपनिषत् पुराण और महाभारत की शैली में 56
15. परब्रह्म के निःश्वासभूत वेदों की अपौरुषैयता 57
16. वेदों के प्रतिपाद्य सगुण या निर्गुण 59
17. ईश्वर-सिद्धि 64
18. नास्तिकों के भी उद्धार का उपक्रम 64
19. सर्वात्मभाव 68
20. भगवान् जगत के अभिन्ननिमित्तोपादानकारण 70
द्वितीय-पुष्प
1. ‘जन्माद्यस्य यतः’ 71
2. 'अन्वयत्', 'इतरत:', 'च' 72
3. 'अभिज्ञः' 74
4. ‘स्वराट्’ 74
5. ‘तेने ब्रह्महृदा य आदि कवये मुह्यन्ति यत् सूरयः’ 75
6. ‘तेजोवारिमृदां यथा विनिमय: 76
7. ऋषि-सूत-संवाद 78
8. श्रीशुक-वन्दना 82
9. शुकमनमोहक ‘बर्हापीडं’ श्लोक 85
10. 'बर्हापीडं' 87
11. ‘नटवर- वपुः’ 88
12. ‘कर्णयोः कर्णिकारं’ 90
13. ‘विभ्रद्वासः कनककपिशं’ 91
14. ‘रन्ध्रान्वेणोरधरसुधया पूरयन्’ 92
15. ‘वृन्दारण्यं स्वपदरमणं’ 94
16. अकारणकरुण करुणावरुणालय-‘भगवान्’ 95
तृतीय-पुष्प
1. प्रतिपद्य और प्रतिपादक की परब्रह्मरूपता 99
2. परम धर्म 111
3. मोक्ष पर्यवसायी धर्म, अर्थ और काम 118
4. ‘तत्त्व’ की तात्त्विक परिभाषा 123
चतुर्थ-पुष्प
1. भगवान व्यास को देवर्षि नारद की प्रेरणा 127
2. गुणगण भगवान् के उपकारक नहीं 139
3. भगवदाराधन की विधि 143
4. ‘तथा परमहंसानां’ के साथ ‘परित्राणाय साधूनां’ की संगति 154
पंचम-पुष्प
1. शुक-समागम 159
2. अप्रमत्त के लिये अति सुगम भगवत्प्राप्ति 174
3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति 175
4. ‘तेषां के योगवित्तमाः’ का समाधान 183
5. ‘न किश्चिदपि चिन्तयेत्’ का तात्त्विक अभिप्राय 188
षष्ठ-पुष्प
1. ब्रह्म-नारद संवाद 190
2. माया संतरण का अमोघ उपाय 191
3. प्रह्लाद चरित 196
4. शरणागति 205
5. शरण्य की शरणागति 208
6. शरण्य का स्वरूप 208
7. शरणागति एक बार या बार-बार? 208/2
8. श्री जी 209
सप्तम-पुष्प
1. राजा बलि के पूर्व जन्म का वृतान्त 216
2. भगवान वामन को आविर्भाव 223
3. राजा बलि की सत्यनिष्ठा 228
4. धर्मनिरपेक्ष या धर्मसापेक्ष? 228
5. धन बड़ा या धनवान ? 230
6. ‘धन नहीं धनवान् बड़ा’ 231
अष्टम-पुष्प
1. वेदान्तवेद्य पूर्णतम पुरुषोत्तम ‘श्रीराम’ 233
2. ‘आदि कर्ता स्वयं प्रभु’ श्रीराम 235
3. लताओं तक को प्रेम प्रदान करने वाले ‘श्रीराम’ 236
4. प्रभुओं के भी प्रभु ‘श्रीराम’ 238
5. धर्म रक्षक ‘श्रीराम’ 239
6. लीला पुरुषोत्तम ‘श्रीकृष्ण’ 239
7. श्रीवृन्दावन, गोपांगनाएँ; श्रीकृष्ण और राधा का तात्विक स्वरूप 240
8. श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का अद्भुत प्राकट्य 242
9. सुषमासारसर्वस्त्र ‘श्रोहरि’ 242
10. अनाघ्रात अनपहत-अनुत्पन्न-अनुपहत और अदृष्टाद्भुत पंकज ‘श्रीकृष्ण’ 242
11. सत्यज्ञानानन्तान्दमात्रैकरसमूर्ति ‘श्रीकृष्ण’ 242/2
12. भगवान् के जन्म और कर्म दिव्य हैं, वे स्वयं अप्राकृत हैं 244
13. श्री वृन्दावनधाम 248
14. मृद्भक्षण लीला 250
15. दामोदरलीला 251
16. निराकार से साकार 252
17. भावुक के दु्रत चित्त पर भगवान् की अभिव्यक्ति ‘भक्ति’ 254
18. श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीराधाचन्द्र 255
19. आसन और आशयरूप बाह्यप्रपच्च और पंचकोश के तादात्म्य का त्यागकर श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द कन्द के स्वागत में तन्मय द्वारकास्थ पट्टमहिषीगण 257
20. कथा श्रवण से वैराग्य एवं विज्ञानोपलब्धि 258
21. भगवद्गुणानुवाद से भगवद्भक्ति 259
22. अंतिम पृष्ठ 259

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