भागवत सुधा -करपात्री महाराजअमृत से मधुरिमा को अलग किया, फिर अमृतत्त्व ही क्या? वेदान्ती गुण-गुणी दोनों का तादात्म्य मानते हैं। इसलिये सत्ता-आनन्दरूप वृषभानुनन्दिनी और कृष्ण दोनों एक ही हैं। एक ही सदानन्दरूप भगवान गौरतेज-श्यामतेज राधा-माधव रूप में प्रकट हुए हैं। मानों गौर-श्याम शीशियों में श्याम-गौर-रस भरा हो। गौर-शीशी श्याम हृदय की वस्तु है और श्याम शीशी गौर-हृदय की वस्तु। गौर में श्यामरस भरा है एवं श्याम में गौररस। दोनों में परस्पर अन्तरंगता है। ‘तमालश्यामलत्विट् यशोदास्तनन्धय’ श्रीकृष्ण ही ‘कृष्ण’ शब्द का अर्थ है, ऐसा भी कोई कहते हैं। ऐसा, कहने पर भी कोई विरोध नहीं है। सत्ता और आनन्द दोनों का ऐक्य है। साधारण श्रृंगार में भावना अभिमानमात्र है। यहाँ तो स्वरूप परिवर्तन भी है। वृन्दावन, श्रीकृष्ण परमानन्दकन्द, वृषभानुनन्दिनी, ब्रजांगनाएँ सतत समवेत लीला भूमि उस अचिन्त्य, अनन्त, अद्भुत प्रेमानन्दरस सिन्धु में क्षणे-क्षणे आविर्भूत-तिरोभूत होते रहते हैं; उन्मज्जन-निमज्जन करते रहते हैं। उस स्थिति में कभी श्रीकृष्ण चन्द्र वृषभानुनन्दिनी के रूप में प्रकट होते हैं तो कभी वृषभानुनन्दिनी श्रीकृष्ण चन्द्र के रूप में प्रकट होती हैं। यही कहा-‘उभयोभयभावात्मा’। तात्पर्य यह कि साधारण नायक के उत्कष्ट रस ही व्यक्त नहीं हो सकता, पर निखिलरसामृतमूर्ति उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगार-रसात्मक श्रीकृष्ण तो रस स्वरूप ही हैं। |
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