विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजपंचम-पुष्प3. नाम-धाम-प्राणायाम और ध्यान से भगवत्प्राप्ति-शौच से उस मल का प्रक्षालन होता रहता है, साथ ही देह के मलिन होने की भावना सुदृढ़ होते-होते देहमात्र से वैराग्य हो जाता है- पुनर्जन्म से ही वैराग्य हो जाता है। मिटृी-पानी से हाथ-पाँव आदि अंग-प्रत्यंग प्रक्षालित करते रहो तो शोच से[1] वैराग्य रूप दिव्य फल होगा- शौचात् स्वाड्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः।[2] (शौच के अनुष्ठान से अपने अंगों से ग्लानि होती है और अन्य शरीरों से संसर्ग की भावना जाती रहती हैं।) स्वेदेहाशुचिगन्धेन न विरज्येत यः पुमान्। देह की अपवित्र दुर्गन्ध से जिसको वैराग्य नहीं होता, उसकी वैराग्य का कारण क्या बतलावें? अर्थात वैराग्य का तो मूलमन्त्र है कि जो अंग-प्रत्यगों से मलिन दुर्गन्ध पूर्ण मल निकलता है, उसमें राग न हो। लेकिन यह तभी होता है जब शौचाभ्यास करें, मिट्टी और जल से इनका प्रक्षालन करें और मिथ्या आहार से बचें असत अनुसन्धान से बचें। आचार्य ने आहार शब्द का अर्थ सम्पूर्ण विषय ही माना है। सारे विषय ही आहार हैं। आँख से क्या देखें, कान से क्या सुनें, घ्राण से क्या सूँघें इन सब बातों का ध्यान रखना चाहिये। आहार की शुद्धि से सत्त्व शुद्धि अन्तःकरण की शुद्धि होगी- आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ धु्रवा स्मृतिः। (आहार-शुद्धि होने पर अन्तःकरण की शुद्धि होती है, अन्तःकरण की शुद्धि होने पर निश्चल-स्मृति होती है, तथा स्मृति की प्राप्ति होने पर सम्पूर्ण ग्रन्थियों की निवृत्ति हो जाती है।)
आह्निय इत्याहारः शब्दादिविषयविज्ञानं भोक्तुर्भोगायाह्निपते तस्य विषयो पलब्धिलक्षणस्य विज्ञानस्य शुद्धिराहरशुद्धी रागद्वैषमोहदोषैरसंसृष्टं विषयविज्ञान मित्यर्थः।[5] न भारती मेअंग मृषोपलक्ष्यते न वै क्वचिन्मे मनसो मृषा गतिः। (हे अंग! मैं प्रेमपूर्वक और उत्काण्ठित हृदय से भगवान के स्मरण में मग्न रहता हूँ; इसलिये मेरी वाणी कभी असत्य नहीं दीखती, मेरा मन कभी असत्य संकल्प नहीं करता और इन्द्रियाँ भी कभी मर्यादा का उल्लंघन करके कुमार्ग में नहीं जातीं।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शुद्धि से
- ↑ योग दर्शन 2.40
- ↑ मुक्तिकोपनिषत् 2.66
- ↑ छान्दोग्योप0 7.26.2
- ↑ शाकंरभाष्य छान्दोग्य 7.26.2
- ↑ उपभोग
- ↑ भागवत 2.6.33
- ↑ वाणी
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