विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजपंचम-पुष्प1. शुक-समागमअवर वक्ता के द्वारा उपदेश किये जाने पर भी यह आत्मा अच्छी तरह नहीं जाना जा सकता। ब्रह्मात्म-तत्त्व के विज्ञान से सम्पन्न ब्रह्मात्मस्वरूप आचार्य द्वारा उपदेश किये हुए इस आत्मा के सम्बन्ध में फिर अनवबोध नहीं रह जाता। इसका वक्ता आश्चर्यमय और शिष्ट-अनुशिष्ट शिष्य भी आश्चर्यमय है। परम योगीन्द्र ब्रह्मविद्वरिष्ठ ज्ञानी भगवद्भावापन्न साक्षात् महात्मा शुकदेव जी महाराज कह रहे हैं- ‘अन्ते नारायण स्मृतिः’[1] अन्त में नारायण की स्मृति हो। अरे! चाहिये तो जीवन भर ही, परन्तु नहीं तो कम-से-कम अन्त में भगवान की स्मृति तो हो! प्रायेण मुनयो राजन्निवृत्ता विधिषेधतः। अर्थात् निर्गुण-निराकार परब्रह्म में परिनिष्ठित बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्र जो कि विधि-निषेधपारंगत[3] हैं, वे भी भगवान के गुणानुकथन में रमण करते हैं। राजन्! तुम स्वयं मुझे देखो। इदं भागवतं नाम पुराणं ब्रह्मसम्मितम्। अर्थात यह भागवत नामक पुराण है जो हम तुम्हें कहेंगे। यह ब्रह्म संहिता है। यहाँ ब्रह्म का अर्थ वेद है। ‘ब्रह्माक्षर समुद्भवम्’[5] ऐसे स्थलों में ब्रह्म का अर्थ वेद होता है। श्रीमद्भागवत वेदों का भी सार है। ‘निगमकल्पतरोर्गलितं फलम्’[6] कह ही चुके हैं। द्वापर के अन्त में हमने अपने पिता श्री द्वैपायन से इसे पढ़ा। निराकार-निर्विकार अद्वैत अनन्त अखण्ड परात्पर परब्रह्म में हमारी पूर्ण निष्ठा प्रतिष्ठा थी। उत्तम है श्लोक- यश[7] जिनकी ऐसे जो परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्ण उनकी जो दिव्य लीलाएँ हैं, उन लीलाओं के द्वारा हमारा मन आकृष्ट हो गया। तब हमने इस आख्यान का अध्ययन किया। अब वही श्रीमद्भागवत हम आपको सुनायेंगे। इसके द्वारा मुकुन्द भगवान श्रीकृष्ण में अवश्य ही दृढ़ निष्ठा होती है। यदि अकुतोभय[8] चाहिये तो योगवेत्ताओं का यही निर्णय है कि अन्त में भगवन्नाम-संकीर्तन, भगवच्चरित, संकीर्तन, भगवद्गुणगण-संकीर्तन हो सके। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 2.1.6
- ↑ भागवत 2.1.7
- ↑ ऊपर उठे हुए
- ↑ भागवत 2.1.8-11
- ↑ भगवद्गीता 3.15
- ↑ भागवत 1.1.3
- ↑ कीर्ति
- ↑ कहीं भय न हो संसार में
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