भागवत सुधा -करपात्री महाराजएक ही अनेक रूपों में प्रकट होता है। इसलिए ‘अजायमानो बहुधा विजायते[1] ‘अजायमान होकर के ही बहुधा विजायमान होता है ’ यहाँ यह तात्पर्य है कि विभिन्न अभिप्राय होते हैं। सबका मत एक-सा नहीं होता। यही कारण है कि किसी वर्णन में किसी सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है और किसी वर्णन में किसी का। ‘जीव औपाधिक होने से नित्य नहीं है’ यह तब कहा जा सकता है जब उपाधि अनित्य हो। अगर कहीं उपाधि नित्य हो तो प्रतिबिम्ब भी नित्य होगा। अविद्या नित्य अनादि है तो अविद्या में पड़ा हुआ प्रतिबिम्ब भी नित्य ही माना जायगा। आकाशस्य यथा भेदस्त्रिविधो दृश्यते महान्। (जलाशय में आकाश के तीन भेद स्पष्ट दिखायी देते हैं- एक महाकाश, दूसरा जलावच्छिन्न आकाश और तीसरा प्रतिबिम्बाकाश। जैसे- आकाश के ये तीन बड़े-बडे़ भेद दिखायी देते हैं, उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकार का है- एक तो बुद्धयवच्छिन्न चेतन, दूसरा जो सर्वत्र परिपूर्ण है और तीसरा जो बुद्धि में प्रतिबिम्बित होता है- जिसको आभास चेतन कहते हैं। इनमें से केवल आभास-चेतन के सहित बुद्धि में ही कर्तृत्व हैं अर्थात चिदाभास के सहित बुद्धि ही सब कार्य करती है। किन्तु अज्ञजन भ्रान्तिवश निरच्छिन्न, निर्विकार, साक्षी आत्मा में कर्तृत्व और जीवत्व का आरोप करते हैं अर्थात् उसे ही कर्ता-भोक्ता मान लेते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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