भागवत सुधा -करपात्री महाराजयद्यपि स्वयं ही भगवान् ने कहा है-‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत’।[1] ‘साधुओं का परित्राण दुष्टों का दर्प दलन और धर्मसंस्थापन’ यही भगवान् के प्रादुर्भाव का प्रयोजन है। पर यह हेतु अनन्यथासिद्ध नहीं।[2] अन्ययासिद्ध हेतु है। क्यों? सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् अपने संकल्पमात्र से सब कुछ कर सकते हैं। सत्य संकल्प भगवान सत्य संकल्प कर दें- ‘‘अधुनैव दुष्टानां सर्वथा विनाशो भवतु’ तो तत्क्षण दुष्टों का सर्वथा विनाश हो जाय। अरे मच्छर मारने के लिए परमाणुबम, हाइड्रोजनबम छोड़ा जायगा? भगवान तो संकल्प मात्र से अखिल ब्रह्माण्ड का उत्पादन करते हैं- ‘इदमिदानीमुत्पादनीय’ संकल्प मात्र से अखिल ब्रह्माण्ड का उत्पादन करते हैं- ‘इदमिदानीमुत्पादनीय’ संकल्प मात्र से विश्व का पालन करते हैं- ‘इदमिदानीं पालयितव्यं’ फिर संकल्प मात्र से रावण, कुम्भकर्ण, हिरण्याक्ष, हिरण्यकाशपु आदि का संहार नहीं कर सकते क्या? कर ही सकते हैं, ध्रुव, प्रह्नादादि साधुओं का परित्राण संकल्प मात्र से हो ही सकता था। अन्तर्यामी परमात्मा के लिए यह सब संभव है- ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेअर्जुन तिष्ठति। (हे अर्जुन! सब भूतों के हृदय में शासन करने वाला ईश्वर स्थित है। वह सब प्राणियों को यन्त्रारूढ़-कठपुतली के समान माया से भ्रमण कराता है।) |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भगवद्गीता 4/7
- ↑ समन्वय का दृष्टिकोण इस प्रवचन के अन्तिम चरण में है।
- ↑ भगवद्गीता 18/61
- ↑ अनृत
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