भागवत सुधा -करपात्री महाराजभगवन! आप महासमुद्र हैं। हम आपके कण हैं। हम आपकी लहर हैं, आप सर्वेश्वर हैं। उसी दृष्टि से ‘वारि बीचि जिमि गावहि वेदा’ ऐसा कहा। पानी और तरंग में जैसा भेद होता है, बस सीता-राम का वैसा ही भेद है। लेकिन फिर प्रश्न होता है कि कौन तरंग और कौन जल? तो श्री हित-हरिवंश जी यही नहीं सहन कर सकते कि राधारानी तरंग हैं। वे कहते हैं, नहीं, नहीं राधा रानी तरंग हैं। वे कहते हैं, नहीं, नहीं राधारानी जल है, श्याम सुन्दर ब्रजेन्द्र नन्दन तरंग हैं। तुलसीदास जी महाराज भी बडे़ चतुर हैं, उन्होंने यह मार्ग निकाला। पहला दृष्टान्त उन्होंने गिरा-अर्थ चुना। गिरा कह करके उन्होंने जनक नन्दिनी जानकी की उपमा दी। गिरा माने अनन्तब्रह्माण्डजननी कल्याणमयी-करुणामयी जनकनन्दिनी और अर्थ अर्थात राम। वैयाकरणों की दृष्टि से शब्द का ही प्राधान्य है। अनादि निधनं ब्रह्म शब्दरूपं यदक्षरम्। उनकी दृष्टि से अनादि-निधन ब्रह्म ही जगत रूपेण विवर्तित होता है। अर्थ तो विवर्त है। शब्दब्रह्म ही मुख्य है। इस दृष्टि से उन्होंने जनकनन्दिनी जानकी जी का प्राधान्य सिद्ध किया। जनक नन्दिनी जानकी शब्द ब्रह्म हैं और राम उनका विवर्त अर्थ। दूसरा दृष्टान्त दिया जल-बीचि का। इसमें उन्होंने जल कह दिया रामचन्द्र को बीचि कह दिया सीता को। राम को मुख्य रखा। अर्थात ‘दोऊ जल दोऊ तरंग’ वाली जो इनकी रीति है उस रीति को रूपान्तर से उन्होंने अंगीकार किया। इधर भी उन्होंने ‘निर्गुण ब्रह्म से भी बड़ा उनका मंगलमय नाम है’ ऐसा बताया- व्यापक एक ब्रह्म अविनासी। सत चेतन घन आनन्द रासी।। नाम का ही निरूपण करो। नाम का ही वाच्यार्थ-लक्ष्यार्थ समझो, नाम का ही स्वरूप समझो। ऐसा करने से वह जो व्यापक-विरज-अविनाशी-सत-चेतन-घन-आनन्द राशि परब्रह्म सबके हृदय में बैठा है और विदित नहीं होता, वह भी विदित हो जाता है। इसलिए नाम बड़ा है। सगुण ब्रह्म के सम्बन्ध में भी उन्होंने कहा- राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।।[3] राम ने एक पाप-ताप भरी गौतम पत्नी अहल्या को तार दिया तो राम नाम ने अनन्त-अनन्त दुर्मतियों को सुमति बना दिया। राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा।। राम ने बानर-भालुओं की सेना बटोरी,महासमुद्र में पुल बाँधा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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