भागवत सुधा -करपात्री महाराजश्री राधा रानी के मुखारविन्द से श्लोक निकला। शुक तो महाप्राज्ञ था। उसने श्लोक कण्ठ कर लिया और बोली ही नहीं, उड़ गया वहाँ से। उड़ कर नन्द के भवन में आया और वहाँ बोला- ‘दुरापजनवर्तिनी’....। श्याम सुन्दर मदन मोहन ब्रजेन्द्र नन्दन उनके सखा के साथ क्रीड़ा कर रहे थे। शुक की वाग्मिता पर श्रीकृष्ण मुग्ध हो गये। कहने लगे- यह किसी महा अनुरागिणी का शुक है। यह महाप्राज्ञ[1] है। भगवान् ने आवाहन किया उसका। वह उड़कर भगवान् के हाथों में चला गया। श्री श्यामसुन्दर ने पुनः श्लोक पढ़ने को कहा। शुक बोला- ‘दुरापजनवर्तिनी’ श्रीकृष्ण ने कभी कण्ठ कर लिया- ‘दुरापजनवर्तिनी.........’ श्लोक का बड़ा गम्भीर अर्थ है। यद्यपि श्री राधारानी भगवान श्रीकृष्ण का स्वरूप ही हैं। श्रीहित हरिवंश महाप्रभु ने कहा है कि ‘दोउ जल दोउ तरंग’। दोउ जल है, दोउ तरंग हैं। राधा जल हैं तो श्रीकृष्ण तरंग हैं। कृष्ण तरंग हैं तो राधा जल हैं। माने (अर्थात्) किसी में गौणता नहीं, अप्रधानता नहीं। आमतौर पर माना जाता है कि शक्ति का अप्राधान्य है और शक्तिमान् का प्राधान्य। लेकिन वे कहते हैं- ‘दोउ तरंग, दोउ जल।’ असल में दोनों एक ही है। लेकिन उपासना के लिए थोड़ा उपास्य-उपासक भाव बनने के लिए भेद होना चाहिए। बिना भेद के उपासना नहीं बनती। सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि। सेवकसेव्य भाव के बिना अपार संसार समुद्र को पार नहीं किया जा सकता। इसलिए अत्यन्त अभेद होने पर भी भेद को अंगीकार करते हैं। भेद कैसे हो? वास्तविक भेद कैसे? वास्तविक भेद तो नहीं बनता। तो वैसे ही जैसे तरंग और जल का भेद कहने भर को होता है, वास्तविक नहीं। गोस्वामी जी भी कहते हैं- गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न। जैसे गिरा और अर्थ का अभेद होता है। जैसे तरंग और जल का अभेद होता है, ऐसे ही सीता-राम का, गौर-तेज का अभेद है। अभेद होते हुए भी भेद है। महान दार्शनिक शंकराचार्य जी कहते हैं- सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्। हे नाथ! यद्यपि आपका और मेरा भेद नहीं है तथापि मैं आपका ही हूँ और आप मेरे नहीं हैं। क्योंकि तरंग ही समुद्र का होता है, समुद्र तरंग का कभी नहीं होता। अर्थात कौन कहता है? दुनिया में तरंग का समुद्र है। समुद्र का तरंग यही कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कृष्ण आह--‘महामेध! में धन्यीकृतं त्वया श्रवणयुगलम्, परमविद्वत्तर! व्चसा च साम्प्रतम् ततस्त्वमतीव धन्योसि।’ स आह- ब्रजराजनन्दन! अतीव कृतघ्नोअयं जनः कथं धन्योसीति वृथा स्तूयते।
यदयम्- गाढानुरागभर निर्भर भंगुरायाः
कृष्णेति नाम मधुरं मृदु पाठयन्त्याः।
'धिदुमानधन्यमतिचंचलजातिषाद्
देव्याः कराम्बुरुहकोरकतश्च्युतोअस्मि।।(आनन्दवृन्दावनचम्पू 8/44)श्रीकृष्ण-‘अहो! महानुरागवत्याः कस्याश्चित्करतललालितोअयं भविश्यति’ इति मनसि विभाव्य, ‘अये! क्षणमिहैव स्थीयतां यावदहं तवाभीष्टमास्पदं प्रापयामि’ इति करकमल प्रसारयामास इति करकमलं प्रसारयामास।(आनन्दवृन्दावनचम्पूः 8/45)
- ↑ रामचरितमानस 7/119क
- ↑ रामचरितमानस 1/18
- ↑ श्रीशंकराचार्यकृत षट्पदी 3
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