भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
रोहिणी जी ब्रज गयीं
‘कंस क्या करेगा?’ शीघ्र ही आशंका का उदय हो गया। आशंका अकारण तो नहीं थी। जो आठवें की प्रतीक्षा न करके देवकी के सब शिशुओं का वध कर रहा था, वह वसुदेव जी की किसी अन्य पत्नी से हुई सन्तान को छोड़ ही देगा, इस बात का क्या भरोसा था। ‘इसे बचाओ जीजी!’ देवकी ने अत्यन्त दीनतापूर्वक अनुरोध किया– ‘अपनी इस अभागिनी अनुजा के लिए, इस वंश के लिए इसे बचा लो।’ ‘क्या करूँ मैं?’ रोहिणी जी ने साश्रु-नेत्र पूछा– ‘मैंने तुम्हारी बात मान ली है। अब तुम जो कहो, वह और करूं।’ बात दोनों महिलाओं से ही सुलझ जाने योग्य नहीं थी। दोनों वसुदेव जीके समीप बैठ गयीं। देवकी जी ने ही पति से सब कुछ कहा। ‘तुम कारागार में नहीं हो अभी।’ वसुदेव जी ने गम्भीर स्वर में कहा– ‘मैंने केवल देवकी जी की सन्तान कंस को देने का वचन दिया था। वैसे अब उस वचन का भी कोई अर्थ नहीं है; क्योंकि जब कंस ने वचन पर विश्वास न करके हम दोनों को कारागार में डाल दिया तो वचन स्वत: समाप्त हो गया। कंस अतिशय क्रूर है। वह कब क्या करेगा, कुछ निश्चय नहीं है। उसे तुम्हारे अन्तर्वत्नी होने का पता लगे, इससे पूर्व ही तुम मथुरा से चली जाओ।’ ‘मैं चली जाऊं आपको और देवकी को इस अवस्था में छोड़कर?’ रोहिणी जी फूट-फूटकर बिलख पड़ीं वसुदेव जी के दोनों चरण पकड़कर। ‘जीजी! तुमने मेरा अनुरोध कभी अस्वीकार नहीं किया है।’ देवकी जी ने इस बार उनके कण्ठ में भुजायें डाल दीं– ‘यह एक भिक्षा अपनी अनुजा को और दो।’ ‘भावना में मत बहो देवि!’ वसुदेव जी बोले– ‘बुद्धिमती हो तुम। परिस्थिति समझो! मेरी बात मानो।’ अच्छा! रोहिणी जी ने मस्तक उठाया– ‘आप आदेश देते हैं और देवकी का आग्रह है–मैं पालन करूँगी; किन्तु कहाँ जाऊँ मैं? मथुरा से दूर जाकर जहाँ आपका मुझे कोई समाचार न मिले, मेरे प्राण नहीं बचेंगे।’ ‘मथुरा से दूर मत जाओ!’ वसुदेव जी ने इस बार बहुत स्नेह भरे स्वर में कहा– ‘मैं भी चाहता हूँ कि तुम समीप ही रहो मथुरा से। हमारा एक ही तो वंशधर है तुम्हारी कुक्षि में। उनके समाचार के लिए हमारे प्राण भी उत्सुक रहेंगे सर्वदा।’ ‘मथुरा के समीप?’ रोहिणी जी ने कुछ नहीं कहा, पर देवकी जी चौंकी। ‘मथुरा के समीप गोकुल में ब्रजाधिप नन्दराय मेरे भाई ही तो हैं।’ वसुदेव जी ने कहा– ‘कंस भी सहसा उन गोपनायक पर हाथ उठाने का साहस नहीं कर सकता और तुम वहाँ श्रीनन्दरानी से अपरिचित तो नहीं हो।’ ‘वे स्नेहमयी!’ रोहिणी जी यशोदा जी के स्मरण से निश्चिन्त हो गयीं। शान्ति के सुखद दिनों में वसुदेव जी अपने परम सुहृद, भाई नन्द जी से अनेक बार मिल चुके थे। दोनों के परिवारों में अत्यन्त घनिष्टता थी। ‘जीजी! तुम आज ही प्रस्थान करो।’ देवकी ने आग्रह किया। नन्दभवन में रोहिणी रहेंगी, इस बात से वे अत्यन्त प्रसन्न हो गयी थीं। ‘कंस की दासी अभी यहाँ आने वाली है।’ वसुदेव जी ने कहा–उसके यहाँ पहुँचने से पहले ही तुम यहाँ से निकल जाओ। वह आकर यहाँ तुम्हारे आने की जब तक प्रतीक्षा करे, तब तक मथुरा से बाहर हो जाना चाहिये। इस वेश में मत जाना।’ रोहिणी जी रोते-रोते देवकी के गले मिलीं। वसुदेव जी के चरणों पर बार-बार उन्होंने मस्तक रखा। अन्त में वहाँ से अश्रु पोंछकर निकलीं– ‘दैव देखें कब इन चरणों के समीप फिर पहुँचता है!’ शीघ्रता में रोहिणी जी ने पुरुष-वेश धारण किया। मस्तक पर पगड़ी बाँधी। अश्व पर बैठी वे। मथुरा से निकलते अकेले अश्वारोही युवक पर कौन ध्यान देता और गोकुल था ही मथुरा से कितनी दूर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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