भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
गर्भ संकषर्ण
माता देवकी अपने उस स्वप्न को कभी नहीं भूलीं, वे प्राय: उसकी चर्चा किया करती थीं– वह स्वप्न भी कोई भूलने योग्य था। अनन्त उज्वल जलराशि–इतनी उज्वल–सम्भवत: वह क्षीरोदधि होगा। यह तो पीछे महर्षि ने बतलाया था, स्वप्न सुनकर कि माता ने अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के नायक गर्भोदशायी भूमा पुरुष को देखा था। उच्छलित उत्तुंग लहरें और अवर्णनीय अमित प्रकाश राशि; किन्तु वह प्रकाश स्निग्ध था। नेत्रों को प्रिय लगता था। उदधि की उत्ताल तरंगों ने सागर के गर्भ में अकल्पनीय विस्तृत सौध बना दिया था। जल, जैसे वहाँ स्तम्भ-छत आदि के रूप में स्थिर हो गया था। यत्र-तत्र उस प्रकाश में पता नहीं, मणियां चमकती थीं या जल-बिन्दु उछलते थे। हिमश्वेत सहस्त्रशीर्षा महानाग अनन्त अपने सहस्त्र फण उठाये स्थिर थे। कम्पन का लेश तक नहीं था उनमें। उनके मस्तक की मणियों की अरुण ज्योति उस प्रकाश में अदभुत शोभा देती थी। कुण्डलाकार शेष के उस सुविस्तृत भोग पर एक अतसी कुसुम श्याम पीताम्बर परिधान पुरुष लेटे थे। प्रलम्ब भुजायें, विशालवक्ष, कण्ठ में जगमग करता पद्मराग महामणि, सर्वांगरत्नाभूषण भूषित। माता का कहना है– ‘एक उड़ती-सी ही दृष्टि तो उन परम पुरुष पर पड़ी थी। फिर तो दृष्टि उनके मुख पर जो स्थिर हुई, हटी ही नहीं। कितना सुप्रसन्न मुख, उच्च नासिका, बड़े-बड़े रतनारे लोचन। कितनी कृपा, कितना स्नेह, कितनी ममता थी उन नेत्रों में। ’सहसा स्वप्न में माता चौंकी थीं। यह क्या हुआ–वह उज्वल केश! उज्वल तो शेष भी थे और अचानक ज्योतिर्मय सूक्ष्मकेश भी बनकर उन अनन्तशायी के सघन, घुंघराले, कोमल केशों में एक बन गये। वह एक श्वेत चमकता केश–माता को वह केश बहुत अखरा था। इनके केशों में एक पका! सहसा उन परमपुरुष ने अपना एक दक्षिण कर उठाया और बिना देखे ही उस श्वेत केश को सिर से निकाल लिया। एक कृष्ण केश भी उसके साथ आ गया उस किसलय अरुण कर में। परमपुरुष ने ध्यान से दोनों केशों को देखा। किंचित हास्य आया उनके अधरों पर। अब उन्होंने माता देवकी की ओर अदभुत भाव से देखा और कृष्ण केश हाथ में ही रखकर श्वेत केश को छोड़ दिया। अदभुत था वह केश–माता की दृष्टि उसी पर स्थिर हो गयी। वह नृत्य करता था; कभी अनन्त सहस्त्र-शीर्षा शेष बनता था, कभी केवल ज्योतिरेखा हो जाता था। कभी वह इतना व्यापक लगता था कि दिशायें भी उसके भीतर समा जाती थीं, कभी अतिशय सूक्ष्म–यह सब था; किन्तु वह बढ़ा आ रहा था। समीप आता जा रहा था और अकस्मात समीप आकर उसने माता देवकी के मुख में प्रवेश किया। माता चौंककर उठ गयीं। ‘देवि! अरुणोदय हो चुका है। उठो!’ वसुदेव जी जगा रहे थे उन्हें। ‘मैंने स्वप्न देखा है।’ देवकी जी ने उठकर अपने स्वामी के चरणों पर मस्तक रखा और उन्हें अपना स्वप्न सुनाया। ‘श्रीहरि ने दर्शन दिया तुम्हें।’ वसुदेव जी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाया। दम्पत्ति का चित्त आज पहली बार प्रफुल्लित हुआ। पहली बार उन्हें लगा कि कुछ अदभुत शान्ति वातावरण में व्याप्त हो गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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