भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अपूर्ण स्वयंवर
श्रीकृष्ण इतना कहकर सिंहासन से उठे। वे सभा भवन से बाहर आए। सबके सम्मुख तत्काल वह सिंहासन, वे कलश आकाश में ऊपर उठे और अदृश्य हो गए। आप दोनों भाई मेरे परम प्रिय हैं। श्रीकृष्ण ने क्रथ और कैशिक का आलिंगन किया–अब आप मेरे प्रतिनिधि रहकर इस राज्य का पालन करें। आप दोनों की अविचल भक्ति रहेगी मुझमें। कोई विघ्न आपके समीप जीवन में नहीं आवेगा। आपको कोई भी क्लेश नहीं दे सकेगा। महाराज भीष्मक ने तथा उनके इन दोनों भाइयों ने भगवान वासुदेव को दूर तक साथ जाकर विदा किया। अग्रज तथा यादव वीरों के साथ श्रीकृष्ण वहाँ से चल कर मथुरा आए। केवल गरुड़ मथुरा साथ नहीं आए। उन्होंने मार्ग में ही अनुमति मांगी–आपके निवास के अधिक उपयुक्त किसी स्थल की शोध करने मैं जाता हूँ। गरुड़ को आज्ञा मिल गई। श्रीकृष्ण चले गए। अब आप निशंक स्वयम्वर सभा का आयोजन करें। सब नरेश प्रसन्न होकर, आभूषित होकर महाराज भीष्मक के समीप पहुँचे। श्रीकृष्ण विरोध रूपी जो अनर्थ स्वयम्वर द्वारा होने जा रहा था, उसे मैंने जान–बूझ कर स्थगित कर दिया। आप सब मुझे क्षमा करें। भीष्मक ने कहा–जो दिव्य पुरुष सिंहासन ले आया था, जिन सुरेंद्र ने सिंहासन भेजा था, वे तत्काल श्रीकृष्ण को समाचार नहीं देंगे? उनसे छिपा कर हम कुछ कर सकते हैं? मेरे दोनों भाई श्रीकृष्ण के ही अब प्रतिनिधि हैं। मैं इनका विरोध भी ले लूं तो मनोवेग गरुड़ की पीठ पर बैठे जनार्दन को यहाँ पहुँचने में विलंब होगा? वे चक्र उठाकर गगन से ही आक्रमण करें, आप में किसी के समीप उनका प्रतिकार करने का कोई उपाय है? सब नरेशों ने मस्तक झुका लिया। सचमुच यदि वे इस प्रकार श्रीकृष्ण चंद्र के साथ छल करते हैं तो गरुड़ारूढ़ हो वे गगन से ही आक्रमण करें, इसे कोई अनुचित कैसे कह सकता है और तब उनका प्रतिकार करने का किसी के समीप भी क्या साधन है? वे पुरुषोत्तम भूमि पर खड़े थे चक्र मौशल–युद्ध में तब भी उनका प्रतिकार नहीं किया जा सका और अब गरुड़ साथ हैं उनके–मनोवेग गरुड़–उन्हें यहाँ आने में दो चार क्षण ही लगेंगे। अब आप सब भी पधारें। मेरे पुत्र ने आपको आमंत्रित करके जो अपराध किया है, मैं उसके लिए आप सबसे क्षमा चाहता हूँ। महाराज भीष्मक ने सबसे प्रार्थना की। सबको सादर विदा किया। केवल मगधराज जरासन्ध और उसके दो चार अंतरंग मित्र रह गए। शेष सब नरेश स्वदेश लौट गए। सब सुन कर देवी रुक्मिणी रो पड़ी थीं। उन्होंने सखियों से कहा– मैं कमल लोचन उन नीलसुंदर को छोड़ कर दूसरे को स्वप्न में भी स्वीकार नहीं करूंगी। महाराज भीष्मक भी चिंतित थे। उनके मन में भी श्रीकृष्ण–प्रेम था, किंतु ज्येष्ठ पुत्र रुक्मी–वह हठी। महाराज को कोई मार्ग नहीं मिल रहा था। उनकी कन्या का स्वयम्वर भंग हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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