भगवान वासुदेव -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
अपूर्ण स्वयंवर
भगवान वासुदेव सुप्रसन्न बोले– मेरे मन में किसी के प्रति द्वेष दो घड़ी भी नहीं टिकता। जो मर गए या युद्ध में मारे गए, उनके लिए शोक न करें। उनको उत्तम गति प्राप्त हुई–यह मेरा निश्चित आश्वासन है। मुझे क्षमा प्रिय है। कृपा ही मेरा स्वरूप है। सभी नरपति परंपरा की शत्रुता त्याग दें और निर्भय हो जाएं। अब स्वयम्वर का प्रश्न उठेगा और फिर संघर्ष होगा। महाराज भीष्मक पूरी रात्रि इसी चिंता में व्याकुल थे। बहुत सोचकर उन्होंने एक उपाय पाया था। अत: वे वहीं हाथ जोड़कर अपने आसन से उठ खड़े हुए। श्रीकृष्ण चंद्र ने उनकी ओर देखा। भगवान वासुदेव पूर्ण पुरुषोत्तम हैं। वे मुझ पर कृपा करें और मेरी प्रार्थना सुनें। सब नरेश भी मेरा निवेदन ध्यान देकर सुनें। महाराज भीष्मक विनय भरे स्वर में बोले–मेरे पुत्र रुक्मी ने बाल चापल्यवश अपनी बहन के स्वयम्वर का आयोजन किया। उसके निमंत्रण पर आप सब पधारे। आप सबको बहुत कष्ट हुआ, इस कारण मैं लज्जित हूँ। आप सभी मेरी विवशता देख कर मुझे क्षमा करें। मेरी कन्या रुक्मिणी स्वयं सभा में आना नहीं चाहती। अब किसी एक वर का निर्णय करके यथावसर उसका विवाह मुझे करना होगा। इतने नरेश बुलाकर एकत्र किए और उन्हें चले जाने को कह दिया गया, यह सबका अपमान–कोई कुछ भी कह सकता है या कर सकता है। अभी–अभी जिसे राजाओं ने नरेंद्र नायक पद पर अभिषिक्त किया, उसका कर्तव्य भी तो सबके हित की रक्षा है। वह चुप सह ले इसे? महाराज! जब आपका पुत्र रंगस्थल बनवा रहा था, जब उसने नरेशों को आमंत्रण भेजा, आप अनजान कैसे रह गए? आपकी पुत्री को ही कैसे पता नहीं लगा, जब इतने राजा यहाँ आए और इनका सत्कार किया गया? प्रारंभ से ही आपने अपने पुत्र को क्यों नहीं रोका? श्रीकृष्ण मेघ गंभीर स्वर में बोले– केवल हम अनिमंत्रित आए हैं। यदि मेरा आगमन आपको अच्छा नहीं लगा है तो मुझे छोड़ कर राजाओं में किसी को राजकन्या वरण करें। मैं बाधा नहीं दूंगा। मैं आपकी कन्या के विवाह में विघ्न नहीं बनूंगा। मैंने यहाँ अपनी सेना को ठहराया, इसका मुझे खेद है। मैं आपकी कन्या का स्वयम्वर रोकने नहीं आया हूँ। आप मेरी ओर से शंकित हों तो भय त्याग दें। सभी नरेशों के नेत्र श्रीकृष्ण के मुख पर लग गए। सबके नेत्रों में प्रशंसा के भाव स्पष्ट थे–इतना स्पष्ट आश्वासन! इतना निपरेक्ष पुरुष! इससे अधिक कोई और क्या कर सकता है? महाराज भीष्मक हाथ जोड़े खड़े रहे। उन्होंने कहा–आप मुझ पर प्रसन्न हैं। आप लोक महेश्वर हैं। मुझसे अपराध हुआ है, किंतु मैं आपकी शरण हूँ। स्वयम्वर में आए राजाओं में किसी को भी मैं इस समय अपनी कन्या देना नहीं चाहता। आप मेरी रक्षा करें। ठीक है, मैं यहाँ शत्रु बनकर नहीं, मित्र भाव से आया था। स्वयम्वर सभा में राजकन्या को देखने की इच्छा से–वे स्वीकार करें तभी उनका वरण करने आया था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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